Sunday, September 1, 2013

जगत मिथ्या ...

भला क्यूँ रहे ?
नेह भरा ये मन
यूं ही बेचैन...

नेह बंधन
बिन डोर बाँध ले
सबके मन...

करें जो स्नेह
बिना स्वार्थ सतत
बरसे नेह...

भटके मन
छटपटाए तन
कोई संग ना....

मोह न छूटे
सजे सँवारे देह
जगत मिथ्या ...

नश्वर देह!
साथ कुछ न जाये
फिर भी मोह...

देह का बोझा
ढोए जन्मोजनम
मुक्ति की आस....

छोटा पिंजड़ा
पंछी छ्टपटाए
देह न छूटे...

-अर्चना

6 comments:

निवेदिता श्रीवास्तव said...

क्या प्रतिक्रिया दूँ नहीं समझ पा रही हूँ ,बस कहीं अंतर्मन को छू गयी .......

प्रवीण पाण्डेय said...

मन में मन की आस बिठा लें,
आती जाती साँस बिठा लें,
यदि न अपेक्षित जग का मंचन,
स्मृतियों का वास बिठा लें।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सुंदर हाइकू की श्रृंखला को एक सूत्र में बखूबी बांधा है आपने। शिल्प और भाव दोनो बेजोड़। वाह!

Ramakant Singh said...

http://zaruratakaltara.blogspot.in/2013/09/blog-post.html

विनम्र आग्रह २ का अवलोकन की कृपा कर अपना अमूल्य विचार दें

जगत मिथ्या पोस्ट से मन में आशा जगी है आपसे अमूल्य विचार प्राप्त होगे

कालीपद "प्रसाद" said...

सुंदर हाइकू
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सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

सुन्दर