Monday, September 15, 2014

ग्यारहवाँ टुकड़ा, उस कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी

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स्पीकर पर धीमी आवाज में प्रवीण पांडे जी की रचना -"अरूण मंत्र गाता निशा गीत गाती , संध्या बिखेरे छटा लालिमा की" .. सुन रही हूं, डिवशेअर पर चला रहा है ....खुद ही रिकार्ड किया था दो अलग- अलग तरह से तो बारी-बारी प्ले हो रहा है...
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मैं दोनों में अन्तर खोज रही हूं, महसूस भी कर रही हूं, और इतनी रात गए सांझ की लालिमा भी पलके झपकते ही दिख रही है.... 




कुछ देर पहले मायरा के लिए बुने जा रहे स्वेटर की सलाईयों को थामें हुए थी... फ़ेसबुक पर स्टेटस दिख रहा है सुज्ञ जी का -

संध्या चिंतन........

उदार वृति विकास के लिए......

*भूल जाओ!!*

1. अशांति के संस्मरण
2. दूसरों के साथ संघर्ष
3. परस्पर कटुता
4. अपना अपमान
5. वैर-वैमनस्य

नित्य संध्या, अंतर्मन को धोना आवश्यक है!! -

कंप्यूटर टेबल पर सलाईयाँ पटक दी है ,एक फोटो लिया मोबाईल से ऐसे ही टाईम पास , दिमाग में चिंतन शुरू हो चुका है ,...
भूल जाओ ... अशांति के संस्मरण एक -एक कर याद आ रहे हैं, और संघर्ष दूसरों से ज्यादा खुद से किये याद आने लगे हैं अब .....आखरी के दो प्वाईंट धुल चुके हैं शायद ....

उंगलियां खटर पटर करने लगी फ़िर से ...टेबल पर सलाईयां अब भी पड़ी हुई हैं...



आज तक मेरी आदत गई नहीं एक साथ कई - कई काम करने की , मुझे लगता है इससे मैं सारे काम एक साथ खतम कर लेती हूं, कोई आगे और पीछे नहीं होता ...परस्पर कटुता ...गायब !

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी .....

1 comment:

  1. सही भी
    सार्थक भी
    शानदार भी

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