Sunday, February 7, 2016

बेबसी

बहुत फर्क हो गया दिनचर्या में
पर कोई फर्क नहीं पड़ा
उस दिन की
और आज की उदासी में

टूटा,गिरा,बिखरा,
दूर तक छिटक गया
दिल जो कांच का था
पत्थर का हो गया

चुभती है फांस-सी
कोई किरचन ,
बहता है लहू,,रिसता है घाव
बढ़ती है फिसलन

गिरने से बचने की कोशिश में
टकरा जाती हूँ
खाली पड़ी कुर्सी से
छलक जाती है चाय
यादें दस्तक देती है
उड़ जाता है अखबार
सोचती हूँ,चिढ़ती हूँ-
ये दिन क्यूँ निकल आता है यार!

-अर्चना

9 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

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  3. दिल को खरोंच लेने वाली अभिव्यक्ति है अर्चना .क्या कहूँ .दर्द को दवा बना लिया है . इससे बड़ी बात कुछ नहीं .

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  4. मार्मिक अभिव्यक्ति।

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  7. सच्ची...ये दिन क्यों निकल आता है यार...???

    दिल से निकली, दिल तक गई...बधाई...|

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