बहुत फर्क हो गया दिनचर्या में
पर कोई फर्क नहीं पड़ा
उस दिन की
और आज की उदासी में
टूटा,गिरा,बिखरा,
दूर तक छिटक गया
दिल जो कांच का था
पत्थर का हो गया
चुभती है फांस-सी
कोई किरचन ,
बहता है लहू,,रिसता है घाव
बढ़ती है फिसलन
गिरने से बचने की कोशिश में
टकरा जाती हूँ
खाली पड़ी कुर्सी से
छलक जाती है चाय
यादें दस्तक देती है
उड़ जाता है अखबार
सोचती हूँ,चिढ़ती हूँ-
ये दिन क्यूँ निकल आता है यार!
-अर्चना
पर कोई फर्क नहीं पड़ा
उस दिन की
और आज की उदासी में
टूटा,गिरा,बिखरा,
दूर तक छिटक गया
दिल जो कांच का था
पत्थर का हो गया
चुभती है फांस-सी
कोई किरचन ,
बहता है लहू,,रिसता है घाव
बढ़ती है फिसलन
गिरने से बचने की कोशिश में
टकरा जाती हूँ
खाली पड़ी कुर्सी से
छलक जाती है चाय
यादें दस्तक देती है
उड़ जाता है अखबार
सोचती हूँ,चिढ़ती हूँ-
ये दिन क्यूँ निकल आता है यार!
-अर्चना
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteदिल को खरोंच लेने वाली अभिव्यक्ति है अर्चना .क्या कहूँ .दर्द को दवा बना लिया है . इससे बड़ी बात कुछ नहीं .
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeletesundar,sarthak prastuti....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सार्थक रचना ....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
सच्ची...ये दिन क्यों निकल आता है यार...???
ReplyDeleteदिल से निकली, दिल तक गई...बधाई...|