Thursday, March 26, 2015

खप्ती... (लघुकथा)




खप्ती!
 हाँ यही नाम पुकारते थे उसका,मैंने अपने बचपन में सुना था ,..तब शायद ७-८ साल की रही होंउंगी ......आज तक याद है ,उसका चेहरा भी नाम के साथ ही याद आ जाता है ....
सामूहिक भोज में जब समाज के सारे लोग इकट्ठा होते तो खप्ती धर्मशाला के सामने घूरे के ठेर पर बैठी रहती ..उसके ३-४ बच्चे उसके इर्द-गिर्द चिपटे रहते ......कोई गोदी में तो कोई पीठ पर ...कौन लड़का है-कौन लड़की कुछ भी अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता था ....कोई उससे थोड़ी दूर चला जाता तो जोर से चीख कर उसको पास आने को कहती ...उसके आस-पास ही गाय-बछड़े,कुत्ते भी बैठे या घूमते रहते ....कोई उसको छूता नहीं था... एक बेटी थोड़ी बड़ी थी .
.. जैसे ही पहली पंक्ति की जूठी पत्तलें लाकर बाहर फ़ेंकी जाती ...वह बड़ी बेटी के साथ दौड़ कर पत्तलें छांटने आगे आ जाती ..जिसमें चावल के दाने चिपके होते या कोई बरफ़ी का टुकड़ा मिलता ....श्रीखंड उसके बच्चों को बहुत पसन्द था ...खूब दोने इकट्ठे करती ...और फिर सारे बच्चों को साथ बैठकर पत्तलें चाटकर खिलाती और खाती ......
मैंने कभी उन बच्चों के पिता को नहीं देखा ....
.... अब वहाँ घूरा नहीं है ....उस जगह बिल्डिंग बन गई है, धर्मशाला भी नई इमारत में बदल गई आज भी धर्मशाला के सामने से गुजरने पर उसकी याद आती है ..

..अब पत्तलों में लोग खाना नहीं खाते ...खाना छोड़ते हैं ....
पर खप्ती और उसके बच्चे नहीं हैं जूठन खाने को .... शायद बड़े हो गए होंगे ...... भौतिक रूप से कहाँ होंगे नहीं पता ...पर मेरे दिल में हैं ...मैं याद करती हूं ..... वे भी भूले तो नहीं ही होंगे अपना बचपन और अपनी खप्ती माँ  को ....  .... :-(

2 comments:

  1. बेहतरीन।
    बरबस ही आँखों में आंसू आ गए।

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