रोज मॉर्निंग वॉक पर घूमने जाने पर वे एक फ्लैट की खिड़की से बाहर देखते हुए दिखते हैं शाम को भी वे उसी खिड़की पर बैठे सामने दिख रहे मैदान में क्रिकेट खेल रहे बच्चों को देखते रहते हैं ....
एक समय था जब वे बहुत अच्छे खिलाड़ी हुआ करते थे ,अपने शहर के ।अपने जवानी के दिनों में बहुत नाम कमाया इस खेल से उन्होंने, कहते हैं कि खूबसूरत तो बला के थे ही स्टाईलिश भी कम न थे, कभी लंबे बाल तो कभी छोटे बाल ,कभी हेट का स्टाईल तो कभी टोपी का स्टाईल बदलते ही लोग दीवाने हो जाते उनके ,खेल तो खैर जो था सो था,क्रिकेट के खेल में चल गए तो चल गए कभी बल्ला बोला तो कभी बॉल बोली लेकिन अगर दोनों न बोले तो लोगों की गालियां तो बोलती ही हैं ....सुनने को जरूर कुछ मिलता है अपने बारे में अच्छाई हो या बुराई अखबारों में जगह पक्की समझो।भले लोकल न्यूज ही क्यों न हो
गावसकर के बाद कपिल और सचिन से होता हुआ ये खेल हर भारतीय पुरुष का अपने गोत्र की तरह चिपका हुआ खेल बन गया ।खुद उसे पता ही नहीं चल पाता कि कब बॉल और बेट उसके हाथ में पकड़ा दिया जाएगा,कब गली के भैया की बॉल दौडदौड कर फेंक कर वापस देने के कारण उसे टीम का मेम्बर बनने का चांस मिल जाएगा, और माँ -पिता के घिसे-पिटे संस्कारित प्रवचनों से छूटने का इतना आसान मौका मिलेगा हर दिन मैच खेलने के बहाने ....
ये सोचते सोचते कि बस इस बार जिले से आगे स्टेट टीम में चुने गए तो और आगे कभी न कभी रणजी में तो चुन ही लिए जाएंगे पढ़ाई लिखाई ताक पर रखी रही ,सिलेक्शन न होना था न कभी हुआ ।
घरबार की जिम्मेदारी के चलते उसी मैदान में कोच बन गए ,समर केम्प चलाने लगे ,सोचते बस एक सचिन निकाल दें किसी तरह तो जिंदगी संवर जाए ...और कभी कोई दूसरा सचिन न निकला .....
अब बच्चों के भरोसे हैं, बैठे रहते हैं खिड़की से चिपके..
न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे, न ही किसी कविता के, और न किसी कहानी या लेख को मै जानती, बस जब भी और जो भी दिल मे आता है, लिख देती हूँ "मेरे मन की"
कभी बल्ला बोला तो कभी बॉल बोली लेकिन अगर दोनों न बोले तो लोगों की गालियां तो बोलती ही
ReplyDeleteबहुत खूब जी।