सोते हुए लगा
कल उठूंगी या नहीं
कौन जाने!
भोर में आँख खुली ...
खुद को जागा हुआ
यानि जीवित पाया ...
कल की सुबह,
सुबह का संगीत
याद आया,
घूमना और
दिन की पूजा
खाना,
सब याद आया,
याद आया-
अकेली बत्तख का
झील में तैरना ,
झील की बंधी किनारी के साथ बने
वॉकिंग ट्रेक पर कुत्तों का
आसमान की ओर ताकते
इधर-उधर दौड़ना,
जल कुकड़ों का तैरते -तैरते
पानी पर दौड़कर
अचानक उड़ जाना ,
फिर
पानी में डुबकी लगा
मछली पकड़ना
उस पकड़ी मछली को
चील का आकाश से
अचानक नीचे आ
झपट्टा मार उसके मुंह से छीन लेना
दूसरी चीलों का उसपर
झपटना,और
मछली का ट्रैक पर गिर जाना
और कुत्तों का भोजन बनना....
यानि
दाने-दाने पर खाने वाले का नाम है
और जीवित रखा तो ,
पालना- पालनहारे का काम है ....
वाह ! क्या बात है ! सुबह का हर दृश्य साकार हो गया ! कमाल करती है आपकी कलम भी ! बहुत संदर रचना !
ReplyDeleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteराधे राधे
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (25-06-2016) को "हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी" (चर्चा अंक-2649) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
ReplyDeleteहरि ॐ
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है
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