अनमनी सी बैठी हूं,
चाहती हूं खूब खिलखिलाकर हंसना
कोशिश भी करती हूं हंसने की
पर आंखें बंद होने पर वो चेहरे दिखते हैं
जिन्हें मेरे साथ खिलखिलाना चाहिए था
अपनी राह में साथ छोड़ बहुत आगे निकल गए वे
और मैं चाहकर भी हंस नहीं पा रही
चाहती हूं इस बारिश के बाद
इंद्रधनुष को देखूं
पर आसमान में काले बादल ही छंट नहीं रहे
सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है
हर तरफ गड़गड़ाहट के बीच चीत्कार गूंजती है
बाहर से न भीग कर भी अंदर तक भीगा है मन
और मैं ताक रही अनमनी सी...
सबकी प्राय: यही मानसिक स्थिति है! किंतु विधि के विधान को कौन बदल सकता है!
ReplyDeleteवक्त ही ऐसा चल रहा है..!
ReplyDeleteसातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है
ReplyDeleteहर तरफ गड़गड़ाहट के बीच चीत्कार गूंजती है
बाहर से न भीग कर भी अंदर तक भीगा है मन
और मैं ताक रही अनमनी सी...बहुत गहरी रचना है, चिंतन को विवश करती हुई।
न जाने ये वक़्त क्या सिखाने आया है । आज शायद हर एक के मन की यही स्थिति है ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteये आंसू की पंक्तियां मन को छू गयी। बहुत बढ़िया है।
ReplyDelete"सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है" - आपकी किस वर्त्तमान मनःस्थिति में ये रचना रची गई है, ये तो नहीं पता; पर रचना में व्यथा के साथ-साथ अनूठी रचनात्मक बिंब भी हैं। क़ुदरत आपको सकारत्मक रखे हर पल .. यही शुभकामनाएं है।
ReplyDeleteहम भी आप की तरह साहित्य की विधाओं से अनभिज्ञ हूँ, बस जो भी मन में आता है बक (लिख) कर मन हल्का कर लेता हूँ .. बस यूँ ही ...
यह मौसम ही ऐसा है... प्रार्थना ही की जा सकती है कि सब बदले. इस सफर में जो छूट गये , वे न होंगे आगे, यह कसक रहेगी ही :(
ReplyDelete