Thursday, September 23, 2010

ये आंखों की नमी भी न

मेरी आँखों में रह-रह कर कुछ भर जाता है ,
छूने से गीला लगता है,
पर पानी नहीं है वो,
क्योंकि पानी की तो कमी हो गई है,
अरे हाँ, खारा- सा लगता है-
कहीं समंदर तो नहीं?
पर नहीं समंदर हो नहीं सकता,
क्योंकि हर समय नहीं रहता-
भरा आँखों में कुछ,
और वापस नहीं जाता,
आँखों से बह जाता है,
हाँ,याद आया-शायद आंसू,
माँ कहती थी-आंसू खारे लगते हैं।
पर आंसू क्यों होंगे?
वो भी तो कब के सूख चुके,
फ़िर भला ऐसा क्या है?जो-
गीला है,पानी जैसा है,खारा है,
और मेरी आँखों को भर देता है,
और जब देखो तब मेरी आंखों को,
नम  कर देता है |

16 comments:

  1. ये भाव होते हैं,
    जो नम होते हैं,
    कारण भी नहीं,
    निवारण भी नहीं।

    ये जगते रहते हैं,
    जब हम सोते हैं,
    ये भाव होते हैं।

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  2. बढ़िया रचना भाव....

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  3. Beautiful as always.
    It is pleasure reading your poems.

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  4. बहुत ही सुन्‍दर भावमय प्रस्‍तुति।

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  5. जब आता है दुःख
    तभी लोचन तन-मन धोता है।
    आँसू का अस्तित्व
    नहीं सागर से कम होता है।।

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  6. यकीनन ये समन्दर ही हैं .. भावों के; एहसासों के और सम्वेदनाओं के
    खूबसूरत रचना

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  7. बहुत सुंदर कविता, धन्यवाद

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  8. वे भाग्यवान होते हैं जिनकी आंखें कभी-कभी नम हो जाती हैं...सुकोमल कविता।

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  9. अर्चना जी..आप ने ठीक ही कहा, जो आँसू थे वो सूख चुके कबके. ये तो मीठे पानी का झरना है जो कभी कभी बह निकलता है आपकी आँखों से... और ये खारे भी नहीं. दरसल यह खारापन ज़ुबान का, जल्दी नहीं जाता... सबूत ख़ुद देख लें आप मीठे झरने का..इतनी मीठी कविता!!!

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  10. निश्चय ही अंदर के चश्मों में दुःख नें खारापन घोला होगा !

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  11. आजकल आपकी कलम ज्यादा ही प्रखर है।
    लेखन की तारीफ़ ही कर रहा हूँ।

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  12. दुनिया गोल है...सुख के बाद दुःख और...दुःख के बाद सुख आता ही है...
    यही जीवन है...
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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