न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे,
न ही किसी कविता के,
और न किसी कहानी या लेख को मै जानती,
बस जब भी और जो भी दिल मे आता है,
लिख देती हूँ "मेरे मन की"
Saturday, July 16, 2011
याद
मैं तुम्हें भूल चुकी हूँ मगर नहीं जानती हर बार तुम्हारी याद क्यों आती है? वर्षों बीत गए तुम्हें भुलाए हुए मगर अनजानों के बीच भी तुम्हारी बात क्यों आती है?
वक़्त वेवक्त हो जाती हैं ऑंखें नम
ReplyDeleteक्योँकि यादों का कोई मौसम नहीं होता ......!
ये याद ही तो है जो सताते रहती है
ReplyDeleteहरदम अपनोंको भी रूलाते रहती है।
यादें ऐसी ही बिन बुलाई मेहमान सी होती हैं।
ReplyDeleteस्मृतियाँ निर्बाध बहती हैं।
ReplyDeleteअर्चना जी, भूल जाने के बाद भी उसी से सवाल.....? यही तो होता है सभी के साथ.......आपकी कशमकश भरी कविता काफी अच्छी है!
ReplyDeleteकविता काफी अच्छी है!......बहुत ही सुंदर ....
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत आपकी लेखनी का बेसब्री से इंतज़ार रहता है,
यादों टीस भरी भी होती हैं और मीठी भी। अच्छी रचना।
ReplyDelete"..................."
ReplyDeleteकुछ बातों पर शायद चुप्पी ही बहुत कुछ कहती है!!