आखिर क्यों
क्यों....
आखिर क्यों ?........
सवाल इतने सारे
कौन सा पूछूँ पहले
इसी सोच में हूँ ....
क्यों होता है ऐसा?
क्यों नहीं होता वैसा?
क्यों करते हैं ऐसा?
क्यों नहीं करते वैसा?
ऐसा करने से क्या होगा?
वैसा कर लिया तो क्या हो जाएगा?
नहीं आ पाता है समझ कुछ?
क्या मिलेगा उसे ऐसा करने से?
मैं क्या करूँ?
क्यों करूँ?
....
ये वो सवाल हैं,
जो दिन भर मथते हैं मुझे,
और
अनायास ही ऊँगली चली जाती है
होंठों पर..
कह उठती हूँ मैं...
चुप!!!!!
आखिर क्यों?
--अर्चना
जावेद अख्तर साहब ने एक बार लिखा था "तुम होती तो ऐसा होता/तुम होतीं तो वैसा होता" और आज तुमने भी इतने सारे सवाल बिखेर दिए.. ये आदमी का दिमाग होता ही ऐसा है!! मगर चुप कह देने या होठों पर उंगली रखने से सवाल रुकते कहाँ हैं.. वे तो दिमाग में हथौड़ों की तरह प्रहार करते हैं!! क्योंकि चुप्पी पर भी तो सवाल उठाते हैं:
ReplyDeleteबस ये चुप सी लगी है,
नहीं उदास नहीं!
सवाल दर सवाल पर जवाब कहाँ ?
ReplyDelete.ये वो सवाल हैं,जो दिन भर मथते हैं मुझे,औरअनायास ही ऊँगली चली जाती है
ReplyDeleteहोंठों पर..
कह उठती हूँ मैं...चुप!!... yahi hota hai
उत्तर यदि प्रश्न बढ़ा जायें तो कठिन हो जाता है।
ReplyDeleteये है ज़िंदगी
ReplyDeleteकभी-कभी हर सवाल से कतरा कर अलग हो जाना ही मैं उचित समझता हूं।
ReplyDeleteपहले सवाल और फिर जबाब की चाह.....लेकिन जरुरी नहीं कि हर सवाल का जब मिल जाये ...फिर भी आगे बढ़ना जरुरी है .......!
ReplyDeleteऊँगली चली जाती है
ReplyDeleteहोंठों पर..
कह उठती हूँ मैं...चुप!!
काश! ऐसा करने से सवालात ठहर जाते....
अच्छी अभिव्यक्ति...
सादर...
कह उठती हूँ मैं...चुप!!
ReplyDeleteबिल्कुल ऐसा ही होता है ... ।
्हर सवाल का जवाब नही होता ना शायद इसलिये
ReplyDeleteयही द्वन्द यही प्रश्न तो जीवन है..
ReplyDeleteप्रश्नों की श्रृंखला से जूझते हम...
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