Friday, December 16, 2011

प्रीत ....

तुम छलना नही छोड़ सकते
तो क्यों मैं छोड़ दूँ अपनी प्रीत  ....

तुम चाहे जग को जीत लो..
पर मैं जाउंगी तुमको जीत...

14 comments:

  1. सुन्दर हैं दोनों क्षणिकायें, वाह!

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  2. वाह, क्या बात है...बेहतरीन लिखा है... !

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  3. कैसे अपनी राह छोड़ दूँ।

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  4. सच्चे अर्थों में इसे कहते हैं "मेरे मन की".. जब, जो, जैसा मन में आया!! बहुत सुन्दर!!

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  5. अरे वाह! अर्चना जी,
    आपका संकल्प तो कमाल का है.

    प्रीत की रीत निराली हैं जी.

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  6. सुन्दर रचना ...

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  7. उम्मीद कभी टूटे नहीं... आपकी इस छोटी सी रचना हर उम्मीद को जिन्दा रख सकेगी. बेहतरीन प्रस्तुति.

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  8. क्या बात है... बहुत खूब...
    सादर..

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  9. बेशक़
    प्रभावी बात कह दी

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  10. यही तो होती है सच्ची प्रीत

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