न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे,
न ही किसी कविता के,
और न किसी कहानी या लेख को मै जानती,
बस जब भी और जो भी दिल मे आता है,
लिख देती हूँ "मेरे मन की"
Sunday, December 2, 2012
रिश्तों की डोर...
रिश्तों की डोर
कसकर बाँधो
या बाँधकर कसो
दोनों वक्त टूटने का डर है...
और यही टूटने का डर
रिश्तों को कस कर बाँधे रखता है
और बाँध कर कसे रखता है...
पर कैसे?
यही सवाल हरदम...
अब इसे सुनिये मेरी आवाज में एक नये प्रयोग के साथ ...
प्रबल उत्कंठा के बावजूद ,शब्दों की कमी मेरे विचारों के प्रकटन में बाधा है . इतना तो कहूँगा की "जितने भी शब्द छू भर लिया .वो आपका अपना है ..अपनों से भी अपना" मन आह्लादित और तृप्त हुआ.
सुन्दर कविता , न जाने क्यूँ मुझे तुलसी की वो पंक्ति याद आ रही थी -
ReplyDelete"भय बिनु होय न प्रीत |" :)
सादर
सुन्दर बात
ReplyDeleteडोर कसी न जाये जीवन,
ReplyDeleteजान जहाँ अपनी अटकी है।
वाह!
ReplyDeletebahut sundar prastuti...
ReplyDeletebadhiya lagaa sunana bhi
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द सन्योजन है
ReplyDeleteबधाई
प्रबल उत्कंठा के बावजूद ,शब्दों की कमी मेरे विचारों के प्रकटन में बाधा है . इतना तो कहूँगा की "जितने भी शब्द छू भर लिया .वो आपका अपना है ..अपनों से भी अपना" मन आह्लादित और तृप्त हुआ.
ReplyDeleteरिश्तों की सच्चाई ...तो येही है !
ReplyDeleteबिल्कुल सच्ची बात
ReplyDeleteसुन्दर प्रयोग.... बढ़िया पोस्ट... शुभकामनायें आभार आपका...
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