Sunday, December 2, 2012

रिश्तों की डोर...


रिश्तों की डोर
कसकर बाँधो
या बाँधकर कसो
दोनों वक्त टूटने का डर है...
और यही टूटने का डर
रिश्तों को कस कर बाँधे रखता है
और बाँध कर कसे रखता है...
पर कैसे?
यही सवाल हरदम...

अब इसे सुनिये मेरी आवाज में एक नये प्रयोग के साथ ...




11 comments:

  1. सुन्दर कविता , न जाने क्यूँ मुझे तुलसी की वो पंक्ति याद आ रही थी -
    "भय बिनु होय न प्रीत |" :)

    सादर

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  2. डोर कसी न जाये जीवन,
    जान जहाँ अपनी अटकी है।

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  3. बहुत सुन्दर शब्द सन्योजन है
    बधाई

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  4. प्रबल उत्कंठा के बावजूद ,शब्दों की कमी मेरे विचारों के प्रकटन में बाधा है . इतना तो कहूँगा की "जितने भी शब्द छू भर लिया .वो आपका अपना है ..अपनों से भी अपना" मन आह्लादित और तृप्त हुआ.

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  5. रिश्तों की सच्चाई ...तो येही है !

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  6. बिल्‍कुल सच्‍ची बात

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  7. सुन्दर प्रयोग.... बढ़िया पोस्ट... शुभकामनायें आभार आपका...

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