आज वाणी जी ...वही ज्ञानवाणी वाली... जी की एक पोस्ट पढ़कर... वही पोस्ट जो फ़ेसबुकिय सुप्रभातम के समय गिरिजेश जी ने वही एक महान आलसी ने :-) .....टाँकी थी ...से एक बहुत पुरानी बात याद आ गई..
तब मैं भी ११-१२ साल की रही होउंगी...घर से १२ किलोमीटर की दूरी पर खेत था हमारा , जब भी फ़सल पकती गेहूँ,ज्वार,गन्ना,कपास... तो गाँव से मंड़ी बैलगाड़ी में लाई जाती थी,साथ में खेत में काम करने वाले दसरथ दाजी - जो खेत की देखभाल करते थे, भी आते थे ...उनका खाना भी माँ ही बनाती थी वे या तो मंड़ी जाने से पहले खा कर जाते या वापस आकर खेत जाने से पहले खाते.... हमारी ड्यूटी रहती उन्हें परोसने की ...अगर इस बीच वक्त बचता तो वे यहाँ के भैस-गाय का चारा-पानी कर देते और उस जगह की सफ़ाई कर देते ...और बाहर बैठ जाते...घर के बीच में एक गलियारा था जिसमें से बाहर दिखता था...पिताजी भी बाहर बैठे रहते , उन्हें अगर कोई चीज चाहिये होती, फिर दरवाजा बन्द करना हो ,या और कोई छोटा-मोटा काम तो वे आवाज लगाते -अर्चना.... और हम खेल में इतने मस्त होते कि अपने छोटे भाई को आवाज लगा देते ...फ़िर वो उसके छोटे को और ...वो उसके ....या . और अन्त में ...वो दाजी सुन लेते और जैसे ही उठते ....हम दौड़ पड़ते डर के मारे ...क्योंकि जानते थे डाँट पड़ती फिर -- तुम्हारे बाप का नौकर है? ...और तब सारे भाई-बहन बच जाते डाँट खाने से ......
ये तो जानते ही नहीं थे कि नौकर कौन होता है सिर्फ़ कहानियों में सुनते थे कि एक सेठ के यहाँ एक नौकर काम करता था...सेठ को आँख बन्द करके भी इमेज में मोटे पेट वाला ही होगा भाँप लेते ... :-)
कितनी सारी बातें सीख जाते थे खेल-खेल में हम.....और ये आखरी लाईन वाणी जी की ज्ञानवाणी से साभार ज्यों कि त्यों-
अविश्वास के इस दौर में जीने वाले हमलोग ...सोचती हूँ ,क्या हमारे बाद वाली पीढ़ी की स्मृतियों में भी ऐसा अपनापन संभव हो सकेगा !!!
आपने गाँव की बात बताई तो मुझे चाचा का घर याद आ गया और हुबई काका, हमारे हरवाह.
ReplyDeleteमुझे नयी पीढ़ी से उम्मीदें हैं. मेरे आसपास के बच्चे बहुत संवेदनशील हैं, हमारी ही तरह. परिवेश बहुत मायने रखता है, लेकिन उससे भी अधिक मायने रखता है परिवार के अन्दर का पालन-पोषण.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,गावं की संस्कृति बहुत ही सादगी लिए होती है.
ReplyDeleteबदलते समय पर सटीक टिप्पणी
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बात आपकी बिल्कुल सही है, अब वो परिवेश लुप्त होता जा रहा है. सब कुछ मशीनी हो रहा है, यहां तक कि रिश्ते भी.
ReplyDeleteरामराम.
आज शहरों में, मां बाप के पास देने को पैसा तो है पर संस्कार नहीं हैं
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:) अच्छा
ReplyDeleteमैं भी कुछ सोच रही हूँ आपको पढ़कर ...
धीरे धीरे ये संस्कार विरल होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteसुंदर यादें .....सच में तेज़ी से बादल रहा है सब ...बहुत अच्छा लिखा है अर्चना जी ...
ReplyDeleteशुभकामनायें ...
परिवर्तन सभी जगह है और कहीं इसका रूप सुखद है तो कहीं दुखद |
ReplyDelete"अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुयी अपनी हाला"
:)
और जहां तक मेरी बात तो मैंने तो ये सब कुछ अनुभव किया है , मोटे पेट वाला सेठ उसके पैरों की तरफ बैठा नौकर ये ख्यालों में ही बुन लिए गए |
सादर