पिछले कुछ दिनों से मन स्थिर नहीं है ..कुछ पन्ने पलटे कुछ ड्राफ़्ट में कुछ पंक्तियां मिली ऐसे ही कुछ पलों की साथी.... और ये गीत/गज़ल..... और ये आवाजें ...
शिद्दत से चाहा, फ़िर भी हम चूके
वक्त और मन, किसके रोके रूके...
वक्त फ़िर जाने क्यों खुद को दोहराता है
मन भला कब वापस लौट कर आता है...
गम को दिल में छुपा कर हँसना ही बन्दगी है
ढँक देने से दुख कम तो नहीं होते
पर खुशी बाँट देने से ही बढ़ती है .
शिद्दत से चाहा, फ़िर भी हम चूके
वक्त और मन, किसके रोके रूके...
वक्त फ़िर जाने क्यों खुद को दोहराता है
मन भला कब वापस लौट कर आता है...
वक्त पर किसी का जोर नहीं चलता
वरना मेरे कहे से वक्त कुछ और ठहरता..
वरना मेरे कहे से वक्त कुछ और ठहरता..
कभी जो मिला वक्त मुझसे तो पूछूंगी
क्यों न करूं मैं अपने मन की
जब खुद मन की करता है -
क्या वो मर्जी है किसी "जन" की...
क्यों न करूं मैं अपने मन की
जब खुद मन की करता है -
क्या वो मर्जी है किसी "जन" की...
अपना आकाश होगा, तो अपनी जमीं भी होगी
संघर्ष करते रहना ही जिन्दगी है
जिसमें अपने हिस्से की थोड़ी सी नमीं भी होगी...
गम को दिल में छुपा कर हँसना ही बन्दगी है
ढँक देने से दुख कम तो नहीं होते
पर खुशी बाँट देने से ही बढ़ती है .
सचमुच मन की बात 'मेरे मन की'
ReplyDeleteमेरी पसंदीदा गज़ल..
पर्दों में क्या छुपा है अल्लाह जानता है
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