न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे,
न ही किसी कविता के,
और न किसी कहानी या लेख को मै जानती,
बस जब भी और जो भी दिल मे आता है,
लिख देती हूँ "मेरे मन की"
Sunday, October 20, 2013
बेचैनी
नींद कहाँ इन आँखों में
अब खौफ है इनमें सपनों का
क्या दोष लगाएँ दुश्मन पे
अब खौफ है उनमें अपनों का
रिश्ते - नाते सब झूठे हैं
रहा साथ सदा बेगानों का
मीठी बातों में जहर भरा
जाने कितने अफ़सानों का......
ये क्या है ??? क्यूँ है ??
ReplyDeleteक्या ऐसा होता है सच में ?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
ReplyDeleteमन में भय का महल बनायें,
ReplyDeleteभागे फिरते हर द्वारे हम।
दुश्मन के वार सामने और मित्र हो पीठ पीछे तो बेचैनी स्वाभाविक है !
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