बहुत कोशिश करने पर भी त्यौहारों में उनकी कमी महसूस होती है ,जिन्हें साथ होना चाहिए .....
बचपन ऐसे बीता जब दादा-दादी के घर में रहने को मिला...... बाकी जो अपने घर से दूर रहते थे सब आते और मिलजुल कर खूब धमा चौकड़ी के साथ मनता त्यौहार....
समय के साथ सब बदल जाता है .....अब घर के सब लोगों के पास छुट्टियों,बच्चों की पढ़ाई की परेशानियां और बहुत सी वजहें हैं की चाहकर भी एक जगह इकट्ठे नहीं हो पाते .......
याद आ रहा है कि दशहरे पर पिताजी कैसे सारे रिश्तेदारों के घर नमस्कार करने ले जाते थे....और सभी बड़ों का आशीर्वाद मिलता था........
बचपन ऐसे बीता जब दादा-दादी के घर में रहने को मिला...... बाकी जो अपने घर से दूर रहते थे सब आते और मिलजुल कर खूब धमा चौकड़ी के साथ मनता त्यौहार....
समय के साथ सब बदल जाता है .....अब घर के सब लोगों के पास छुट्टियों,बच्चों की पढ़ाई की परेशानियां और बहुत सी वजहें हैं की चाहकर भी एक जगह इकट्ठे नहीं हो पाते .......
याद आ रहा है कि दशहरे पर पिताजी कैसे सारे रिश्तेदारों के घर नमस्कार करने ले जाते थे....और सभी बड़ों का आशीर्वाद मिलता था........
हाँ , मायरा गई है न अपने बड़े दादा दादी का आशीर्वाद लेने...........?
....कि सब दूर रहकर भी पास रहें.......
....कि सब दूर रहकर भी पास रहें.......
अनवरत कहानी का एक टुकड़ा .......
बहुत कुछ छूटता जा रहा है हाथों से अर्चना , सोचकर टीस होती है जिन्हें साथ होना चाहिये वे साथ नही हैं फिर भी ढलना तो है समय के अनुसार . बस जहाँ मिलें खुशियाँ समेटती रहो .
ReplyDelete