महिलाओं को आगे लाने की बात हो तो घर से शुरुआत करनी चाहिए ,सबसे जरूरी है उनकी शिक्षा व रुचि ...
जैसा कि सब जानते हैं परिवार में जितने लोग होते हैं आपसी सूझबूझ और तालमेल के साथ रहें तो प्रेम बना रहता है,तालमेल का यहाँ मतलब है अपनी -अपनी जिम्मेदारी और समय संयोजन के साथ आपसी सहयोग होना।
जिस तरह से पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक परिवर्तन होते हैं उन्हें स्वीकार करना और परिवार में सामंजस्य बनाए रखना जितना बुजुर्गों के लिए जरूरी है, उतना ही नई पीढ़ी के लिए भी अपने संस्कारों और सीख को अगली पीढ़ी तक उसी रूप में पहुंचाना जरूरी है ।
व्यक्ति अपने अनुभवों से ही सीखता है,और अगर हम ये कहते हैं(जो कि सुनते आए हैं) कि - बड़ों की बात सुनना चाहिए तो उसका सीधा अर्थ यही होता है कि उनके अनुभवों का लाभ लेना चाहिए।
अब महिलाओं की बात करते हैं -परिवार में महिलाएं ही वो नींव होती हैं जो भारतीय परंपरा के अनुसार संस्कारों का वहन कर उन्हें एक परिवार से दूसरे परिवार और एक समाज से दूसरे समाज तक विस्तार देती हैं,
हो सकता है ,अगर आप बेटी के अभिभावक हैं तो ये आपकी जिम्मेदारी बनी रहती है कि आपके परिवार की सारी अच्छाइयों का ही प्रसार हो और शायद महिलाओं में अनुशासन के पालन का गुण इसी का नतीजा हो ...मगर ये आपकी जिम्मेदारी है कि आपके घर में संस्कारों की खेती होती रहे तो जो बेटे घर में रहें वे उसे सींचते रहें ....
समय बदलता है महिलाएं उन क्षेत्रों में भी अपना रास्ता खोज खुद आगे बढ़ने लगी हैं,जिनमें जाने से वे वंचित रही हैं ,यानि रोक तो कोई नहीं है,कहीं नहीं है ...
अब मैं अपनी पीढ़ी की ही बात कहूँ तो गोबर के उपले बनाने,भैंस का दूध दुहने,आँगन लीपने,अरहर-मूंग की दाल घर में बनाने और उनके शेष बचे चूरे से पापड़-अचार- कुरळई-वड़ी बनाकर सुखाने तक से लेकर साईकिल -मोटर साईकिल और कंप्यूटर चलाने तक सब करने लगे हैं हम और हर जगह घर के पुरुषों का समान सहयोग रहा ,सदा बढ़ावा ही मिला ...
हम जितने आगे बढ़े उतना पीछे भी रहे, लेकिन आज की पीढ़ी सिर्फ आगे बढ़ना चाहने लगी और अनुभवों की फिक्स डिपॉजिट का उपयोग करना छूट गया।
अब बताती हूँ मेरे अनुभव की बात - मैं खुद साईंस लेकर ग्रेजुएट हुई,लेकिन उस समय खेल में रूचि होने से फाईनल परिणाम अच्छा नहीं रहा और आगे रेग्युलर एडमिशन नहीं मिल पाया और लड़की होने और खेल सुविधाओं ,कोचिंग के अभाव में ज्यादा आगे तक खेल भी नहीं पाई,खैर आगे लॉ किया,मगर सोच वही रही कि घर ही रहना है, और जब मुसीबत सर पर आई तो लड़ते-भिड़ते यहाँ तक पहुँच आ पहुंची,सार ये कि सब बिना प्लानिंग के .... लेकिन पूरे परिवार ने सबक लिया और अब घर में लड़कियां आत्मनिर्भर हैं ।
चलते चलते बता दूं कि मेरी बहू बिहार से है, और शादी के बाद पी एच डी पूरी करने के लिए चार साल होस्टल में रहना था तो ये बेटे और परिवार के सहयोग से सम्भव हो पाया ...अब अपने जॉब में है ..
और बेटी जो पहले से ही जॉब कर रही थी,उसके ससुराल में कोई महिला सदस्य जॉब नहीं करती थी फिर भी शादी के बाद जॉब जारी रखा था और एक अनहोनी घटने पर जब सास - ससुर का साथ छूटा तो सारी जिम्मेदारी बेटी- दामाद पर आने पर उसने जॉब से छुट्टी ली और अब मायरा की देखभाल के साथ आगे की है पढ़ाई कर रही है ....
यानि सहयोग से सब सम्भव है, मगर आगे महिलाओं को आना होगा और महिलाएं ही आगे बढ़ाएगी तो महिलाओं के लिए कोई रोक नहीं उड़ने को विशाल गगन है ।
मुझे ख़ुशी है कि मेरा परिवार और मैं - हम ये कर पाए...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-03-2017) को
ReplyDelete"आओजम कर खेलें होली" (चर्चा अंक-2604)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
महिलाओं को केवल आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर होना होगा, ताकि मुसीबत के वक्त में वे हर तरह से परिवार व समाज के काम आ सकें.
ReplyDeleteसमय-समय की बात है
ReplyDeleteआज के बच्चे हमारे जैसे सीधे-साधे कहाँ हैं, वेतो एडवांस हैं
परिवार के सहयोग से मनोबल बना रहता है -बाधाएं आती हैं तो भी उनका तोड़ निकल आता है.
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