सबकुछ बहा कर ले जाये,वो बाढ़, उथलपुथल मचा कर रख दे,वो बाढ़, तहस नहस कर दे,वो बाढ़, यहाँ से उठाकर वहाँ पटक दे वो बाढ़, बाढ़ नाम ही दहशत का प्रतीक है,जब भी आती है इंसान,जानवर,सजीव,निर्जीव किसी में कोई भेद नहीं ।
बाढ़ करती है तांडव जैसे शिव ने किया ,तबाही मचा देती है, बाढ़ शब्द अतिरेक का है, लेकिन बाढ़ के बाद क्या और बाढ़ क्यो?बाढ़ शब्द से पहला अर्थ पानी के बढ़ने से ही लगाया जाता है ,बरसात के मौसम में नदी नाले उफान पर आ जाते हैं जमीनी असंतुलन होने,तेजी से बढ़ते पर्यावरण असंतुलन के कारण नदियों में जब इधर उधर न जाने किधर किधर से आकर पानी आकर समाने लगता है तो किनारे न बंधे होने से बाढ़ की स्थिति आ जाती है नदी को भी लगता है सालभर तो सूखे ही रहना है सबको लपेट लें चलो सो जहाँ तक हाथ मार सकती है मार देती है ... वैसे मौका मिलने पर हाथ कौन नहीं मारना चाहता, ज़रा सोचिए, बचपन से लेकर अब तक आपने कब और कहां हाथ मारा ,स्कूल पेंसिल ले जाना भूल गए साथी की टेबल से हाथ मार उठा ली,भूख लगी टिफिन पर हाथ मार दिया,अकेले हैं साथी की पीठ पर मार दिया दुकानदार बने ,हाथ मार दिया,राजनेता बने जहाँ तक बस चला बस हाथ ही मारते रहे.... समेट लिया सब अपनी बाढ़ में .... खुद तो इठला कर चले और पलट कर भी न देखा, बाढ़ के बाद देखने को कौन पलटा है .... जंतर मंतर पर इंसानी बाढ़ देखी,उसके बाद का मंजर देखा,देखते ही जा रहे हैं ,सब तितर- बितर हो गए......सरदार सरोवर देखा ...हरसूद खत्म ... केदारनाथ देखा ...रामबाड़ा खत्म... जंतर मंतर देखा ..अन्ना खत्म ......बाढ़ में भी एडवेन्चर तलाशते हैं लोग...घोटालों की बाढ़ ,एडमिशन की बाढ़ याद होगी व्यापम की ...
लेकिन खत्म होने के बाद कि शांति ज्यादा डरावनी होती है बाढ़ के बाद की .... खत्म हो जाने के बाद नई ताकत झोंकना पड़ती है,आदमी को जानवर को पेड़पौधों को नए सिरे से जीवन शुरू करना होता है , अब हाथ मारने वाली बात खत्म होकर हाथ बढ़ाने/देने की बात होने लगती है ....बाढ़ की तबाही मेलमिलाप बढ़ा देती है, जो कल तक अपने नहीं होते, वे अपने होने लगते हैं, जिसकी पूछपरख नहीं होती अगर उसने हाथ बढ़ा दिया तो उसकी पूछ परख होने लगती है ....फिर से उठ खड़े होने को बाढ़ जरूरी है, सड़ा-गला बहा ले जाने को बाढ़ जरूरी है....प्रकृति में संतुलन चाहे पेड़पौधे हों,जीवन हो,या आदमी के स्वभाव में संतुलन की बात हो बाढ़ आते रहनी चाहिए ,तबाही तो वैसे ही होनी लिखी है मरना तो सबको है ही तो बाढ़ के बाद का जीवन जीकर ही सही .......
आखिर एडवेन्चर का जमाना है ....
न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे, न ही किसी कविता के, और न किसी कहानी या लेख को मै जानती, बस जब भी और जो भी दिल मे आता है, लिख देती हूँ "मेरे मन की"
सही कहा, बाढ का भी तो अपना महत्व है ही, सुंदर कटाक्ष.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बचपन में बाढ़ की भयावहता से खूब रूबरू हुए हैं.तब हमलोग सरकारी आवास छोड़कर डाक बंगले में रहने चले जाते और छह महीने तक वहीँ डेरा-बसेरा रहता.
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