घड़ घड़ घड़ घड़ करते उसने शोर मचाया, मैं जानती थी ये बादल का इशारा था ये कि -भाग लो,समेट लो, जितना बचा पाओ बचा लो ,अब बरसा दूंगा , मैंने ऊपर देखा गोरे बादलों की जगह काले बादलों ने ले ली थी ,H1 B1 का कोई चक्कर नहीं था उनके बीच ... मैनें नीचे देखा खेती वाली जमीन के फटे होंठ मुस्कुराने को तैयार थे, लेकिन सड़कें डरी सहमी चेचक के दाग लिए बैठी थी ...बैठी क्या कुचली जा रही थीं ... नदी रास्ता देख रही थी कब झरने उसको बेटन दें और वो अपने हिस्से की दौड़ लगाएं, वहीं झीलों में टीनएजर्स वाली बेसब्री दिखने लगी,थोड़ी दूरी पर झील की बाउंडरी से सटे किनारे पर बीपीएल के पते वाली जनता के बच्चे अपने आसरे के बाहर कुत्तों के पिल्लों समेत दिखे वे उनको छत के नीचे सुला रहे थे। मैनें फिर ऊपर नज़र उठाई देखा मेरे साथ बादल भी ये देख रहे थे वे आपस में गुथ्थमगुथ्था हो रुक से गये बूँदे ऐसे गिरने लगी जैसे कोई धक्का दे गिरा रहा हो, कुत्ते के पिल्ले को छुपा कर बैठे सल्लू को हाथ से खींच कर उसकी माँ ने अपनी खोली में खींच लिया,बाजू की 12 मंजिली मल्टी के छत पर कुछ जोड़े दिखाई दिए हाथ फैलाकर भीगते हुए, एक तरफ बचाव था तो एक तरफ स्वागत ... लेकिन बादलों ने बरसने को तैयार बून्दों को समझा कर फिर समेट लिया फिर किसी दिन बरसा देने का वादा करके ....बरस चुकी बूँदे सल्लू के माँ -बाप की और जमीन के फटे होंठ को सहलाते किसान की आंखों में समा गई ....
वाह दीदी क्या प्रवाहमय शैली में बिंदास लिखा है आपने ऐसा लग रहा है नदी बह रही और आपके शब्द तैर रहे हैं ,बेसाख्ता , बेलौस ..कमाल ..मुझे ख़ूब पसंद आई ...आपके मन की
ReplyDeleteएक झरना सा फूटा जैसे बरसात में
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और गहन लिखा आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग