Sunday, August 4, 2013

वरना ...






कभी लेटने को खुली छत 

या कभी दो पल को 
सुकून मयस्सर नहीं होता 
वरना 
चाँद -सितारों से 
टिमटिमाते तारों से 
बातें करना 
किसे अच्छा नहीं लगता

इसे कर्मों की करनी कहें 
या भाग्य, 
या अपना नसीब 
कि हम 
पिंजड़े में बंद हैं,
वरना 
खुले आकाश में 
स्वच्छंद हो 
उड़ना 
किसे अच्छा नहीं लगता 

वो तो ,उनके साथ बीते 
पलों की यादें 
पीछा नहीं छोड़ती 
वरना 
सुहाने मौसम में 
सजना ,सँवरना 
किसे अच्छा नहीं लगता
- अर्चना

10 comments:

  1. इसे कर्मों की करनी कहें
    या भाग्य,
    या अपना नसीब
    कि हम
    पिंजड़े में बंद हैं,
    वरना
    खुले आकाश में
    स्वच्छंद हो
    उड़ना
    किसे अच्छा नहीं लगता

    निःशब्द करते शब्द और तीनो बंध किसे अच्छा नहीं लगता
    दिल की बात को शब्द दे दिए गए जो बोल बन गए ***मेरे मन की ***

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  2. निशब्द करती मार्मिक रचना.

    रामराम.

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  3. इस व्यस्त जिन्दगी की छुपा दर्द है यह
    सच में किसे अच्छा नहीं लगता खुला आसमां निहारना

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  4. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।

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  5. यादें चिपक जाती हैं उम्र भर के लिए ... कुछ नहीं करने देती ... मार्मिक शब्द ...

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  6. 'कि हम
    पिंजड़े में बंद हैं,'

    काश कुछ पलों का अवकाश मिलता, उड़ पाते!

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  7. मार्मिक विवशता शब्दों में साकार !

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  8. देश हमारा, वेश हमारा,
    उन पर आश्रित शेष हमारा,
    आज पवन भी चुप हो बैठी,
    कह देती संदेश हमारा।

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  9. सही कहा अर्चना जी .....एक खुशहाल जिंदगी का सपना किसे अच्छा नहीं लगता

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