जब मैंने स्कूल में कार्य करना शुरू किया उस समय मुझे पता नहीं था - मैं किस तरह कार्य करूँगी ... परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गई थी कि मेरे सामने आगे जीवन चलाना और साथ दो बच्चों का भरण-पोषण करना एक चुनौती था ....
बात है सन १९९८ अप्रेल की ...तब बेटा सातवीं में और बेटी चौथी की परिक्षा दे रहे थे .... बेटा साईकिल से स्कूल जाता था अपने दो-तीन दोस्तों के साथ ...एक दिन वापस लौटते हुए अपने एक पिछड़े साथी को मुड़कर देखने के चक्कर में सामने आए पत्थर से टकरा कर ऐसे गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गए ....
घर आकर जैसे ही सबको पता चला सब बहुत चिंतित हो गए ..कारण ये कि सब भुक्तभोगी थे ....मैं खुद खेलते हुए छठी कक्षा में ही तुड़वा चुकी थी अपने दो दाँत ....बिलकुल सेम -टू- सेम और तब शिरूआती लापरवाही की वजह से पस पड़ गया था ....
खैर ! तय किया कि परिक्षा खतम होते ही इन्दौर जाकर बेहतर इलाज करवाया जाय और तब तक कुछ दिन सिर्फ़ तरल खाना और साफ़ सफ़ाई का खयाल रखा जाए .....
इन्दौर आए इलाज के लिए ...साथ ही सोचा कि बच्चों की बेहतर शिक्षा की खातिर जो कि व्यवधान आने से गड़बड़ा गई थी उन्हें फिर से सी.बी.एस.ई. स्कूल में भेजा जाए और जरूरत पडे तो बेटे को होस्टल में रखा जाए ....
मेरी सहेली की मदद से इस स्कूल का पता लगा ..जो शहर से १३ किलोमीटर दूर था उस समय ....सहेली और भानजे के साथ स्कूल गए ...होस्टल देखा और प्रिंसिपल मेडम से बात की एडमिशन के लिए .... उन्होंने सारी बातें जानने के बाद ऑफ़र दिया - कि अगर चाहो तो वार्डन का जॉब ले सकती हो जिससे सिर्फ़ लड़कों का होस्टल होने के बाद भी तुम अपने साथ लड़की को रख सकती हो .... रहना ,खाना और पढ़ाई ....मेरे सामने ये तीन समस्याएं ही मुँह उठाए खड़ी थी ....फिर भी कभी घर से बाहर निकल कर कहीं काम नहीं किया था नौ साल घर ही संभाला था ....और कुछ सोचा भी नहीं .... कोई निर्णय पिता से पूछे बिना कभी नहीं लिया था ,तुरंत हाँ न कह सकी ...मैंने जबाब दिया- पिताजी से पूछ कर बता पाउँगी ....
उन्होंने ८-१५ दिन का समय दिया ... मैंने फोन से पिताजी को बताते हुए पूछा- क्या कहूँ ? ...
जबाब मिला - वे कोई बाँध कर तो रख नहीं लेंगे , तुम्हारा मन कहे तो करके देख लो ,अच्छा न लगे तो फिर घर आ जाना ! ...
बस! यहीं से शुरूआत हुई खुद निर्णय लेने की और हिम्मत आई कि-अपनी इच्छा के बगैर तो कोई कुछ करवा नहीं सकता ....
मैंने हाँ कहा ...मुझे तारीख मिली २२ जून १९९८ ....और पिताजी का देवलोक गमन हो गया २८ मई १९९८ ....
मैं आ गई स्कूल .... तय करके कि जो भी हो परिस्थियों का मुकाबला करना है ...
एक-एक करके सारे काम सीखती गई .... सभी शिक्षकों से पूछ-पूछकर .... सबसे ज्यादा सीखा नवीन रावत सर से जो फिजिकल एजूकेशन शिक्षक थे ....
मेरे तीन साल वार्डन रहते होस्टल के बच्चों के साथ सारे खेल खेलती.... बाद में खेल शिक्षिका हुई ....
लेकिन स्कूल का कोई कोना ऐसा नहीं जहाँ मेरी यादें न हों ..और कोई कार्य ऐसा नहीं जो मैंने किया न हो ...
कहने को खेल शिक्षिका मगर संगीत,आर्ट,रिसेप्शन,हिन्दी,..... सबका रोल निभाने मिला ....... यहाँ तक कि बच्चों के कपड़े भी धोए और उन्हें रोटी भी बनाकर खिलाई .... सबसे सुखद रहा स्कूल में "बेस्ट टीचर" का पुरस्कार मिलना ...वो भी स्कूल के २५ वें वार्षिकोत्सव में
बात है सन १९९८ अप्रेल की ...तब बेटा सातवीं में और बेटी चौथी की परिक्षा दे रहे थे .... बेटा साईकिल से स्कूल जाता था अपने दो-तीन दोस्तों के साथ ...एक दिन वापस लौटते हुए अपने एक पिछड़े साथी को मुड़कर देखने के चक्कर में सामने आए पत्थर से टकरा कर ऐसे गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गए ....
घर आकर जैसे ही सबको पता चला सब बहुत चिंतित हो गए ..कारण ये कि सब भुक्तभोगी थे ....मैं खुद खेलते हुए छठी कक्षा में ही तुड़वा चुकी थी अपने दो दाँत ....बिलकुल सेम -टू- सेम और तब शिरूआती लापरवाही की वजह से पस पड़ गया था ....
खैर ! तय किया कि परिक्षा खतम होते ही इन्दौर जाकर बेहतर इलाज करवाया जाय और तब तक कुछ दिन सिर्फ़ तरल खाना और साफ़ सफ़ाई का खयाल रखा जाए .....
इन्दौर आए इलाज के लिए ...साथ ही सोचा कि बच्चों की बेहतर शिक्षा की खातिर जो कि व्यवधान आने से गड़बड़ा गई थी उन्हें फिर से सी.बी.एस.ई. स्कूल में भेजा जाए और जरूरत पडे तो बेटे को होस्टल में रखा जाए ....
मेरी सहेली की मदद से इस स्कूल का पता लगा ..जो शहर से १३ किलोमीटर दूर था उस समय ....सहेली और भानजे के साथ स्कूल गए ...होस्टल देखा और प्रिंसिपल मेडम से बात की एडमिशन के लिए .... उन्होंने सारी बातें जानने के बाद ऑफ़र दिया - कि अगर चाहो तो वार्डन का जॉब ले सकती हो जिससे सिर्फ़ लड़कों का होस्टल होने के बाद भी तुम अपने साथ लड़की को रख सकती हो .... रहना ,खाना और पढ़ाई ....मेरे सामने ये तीन समस्याएं ही मुँह उठाए खड़ी थी ....फिर भी कभी घर से बाहर निकल कर कहीं काम नहीं किया था नौ साल घर ही संभाला था ....और कुछ सोचा भी नहीं .... कोई निर्णय पिता से पूछे बिना कभी नहीं लिया था ,तुरंत हाँ न कह सकी ...मैंने जबाब दिया- पिताजी से पूछ कर बता पाउँगी ....
उन्होंने ८-१५ दिन का समय दिया ... मैंने फोन से पिताजी को बताते हुए पूछा- क्या कहूँ ? ...
जबाब मिला - वे कोई बाँध कर तो रख नहीं लेंगे , तुम्हारा मन कहे तो करके देख लो ,अच्छा न लगे तो फिर घर आ जाना ! ...
बस! यहीं से शुरूआत हुई खुद निर्णय लेने की और हिम्मत आई कि-अपनी इच्छा के बगैर तो कोई कुछ करवा नहीं सकता ....
मैंने हाँ कहा ...मुझे तारीख मिली २२ जून १९९८ ....और पिताजी का देवलोक गमन हो गया २८ मई १९९८ ....
मैं आ गई स्कूल .... तय करके कि जो भी हो परिस्थियों का मुकाबला करना है ...
एक-एक करके सारे काम सीखती गई .... सभी शिक्षकों से पूछ-पूछकर .... सबसे ज्यादा सीखा नवीन रावत सर से जो फिजिकल एजूकेशन शिक्षक थे ....
मेरे तीन साल वार्डन रहते होस्टल के बच्चों के साथ सारे खेल खेलती.... बाद में खेल शिक्षिका हुई ....
लेकिन स्कूल का कोई कोना ऐसा नहीं जहाँ मेरी यादें न हों ..और कोई कार्य ऐसा नहीं जो मैंने किया न हो ...
कहने को खेल शिक्षिका मगर संगीत,आर्ट,रिसेप्शन,हिन्दी,..... सबका रोल निभाने मिला ....... यहाँ तक कि बच्चों के कपड़े भी धोए और उन्हें रोटी भी बनाकर खिलाई .... सबसे सुखद रहा स्कूल में "बेस्ट टीचर" का पुरस्कार मिलना ...वो भी स्कूल के २५ वें वार्षिकोत्सव में
वाह! आनंद दायक और प्रेरक। मैं आपके स्कूल में नहीं पढ़ा मेरा मतलब आपका विध्यार्थी नहीं रहा मगर अनवरत आपके साहस से ऊर्जा मिलती रहती है।
ReplyDeleteजिंदगी में विपरीत परिस्थितियाँ अक्सर इंसान को स्वातंत्र्य और आत्मबल दे जाती हैं!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 07 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteविपरीत परिस्थितियां हमें वह सब सिखा देती हैं जो हम कभी सोचते तक नहीं। .. संघर्ष का परिणाम सुखद हो तो दुखद क्षण जाते रहते है। .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति। .