कुछ निर्जीव चीजों में भी प्राण आ जाते हैं, उनसे जुडी यादों के आते ही .... करीब 31 साल पीछे के अक्टूबर-नवम्बर के पन्ने फड़फड़ाने लगे है इन दिनों.....
टेबल,कुर्सी,पलंग,दीवारें बोलने की कोशिश में हैं और चादर , तकिये ,परदे
फुसफुसाने लगे हैं ....
चाय का कप चुपके से सुन कर बता रहा है ....सलवटें कहाँ-कहाँ हैं.....
चूड़ियाँ खनक-खनककर छेड़ रही है मधुर तरंग और हवा की ठंड़क वाह के साथ आह! की ताल मिला रही है ...
वो दिन और उनकी यादें ताज़ा रखती हैं मेरी साँसों को .... और यही वजह है कि निर्जीव चीजें भी मेरे साथ बतियाते रहती है ...
एक अनुपम यात्रा-
..... बाळू से नानी तक की .....
आज अपने बारे में सोचते -सोचते .....याद आया -
बचपन से लेकर अब तक कितने नाम बदलते रहे मेरे ...और हर नाम के साथ उम्र और चरित्र भी...... बिटिया से लेकर माँ ...और बहू से लेकर नानी तक......
बचपन से लेकर अब तक कितने नाम बदलते रहे मेरे ...और हर नाम के साथ उम्र और चरित्र भी...... बिटिया से लेकर माँ ...और बहू से लेकर नानी तक......
कितने ही लोग मिले और बिछड़े...इस सफ़र में अब तक ....और हर एक से कुछ न कुछ लिया ...लेकर चल रही हूँ ..अपने पड़ाव की तलाश में ....
लिखी जा रही अनवरत कहानी के एक रोमांटिक पन्ने से ...
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