Sunday, October 31, 2010

एक गज़ल ---समीर जी की...



समीर जी के बारे मे ज्यादा जानना चाहें तो फ़िलहाल यहाँ पढ़िये---

 और दिव्यांशी बिटीया को अब तक जिसने जन्मदिन की बधाई न दी हो वे बधाई दे राजेन्द्र जी के ब्लॉग पर ...सुने उनकी एक रचना बेटी....

(अगर प्लेयर न चले तो शिर्षक पर एक बार क्लिक करें)

Saturday, October 30, 2010

शुक्रिया....

समयाभाव के कारण सबका अलग-अलग शुक्रिया अदा नहीं कर पा रहीं हूँ इसलिए  मेरे जन्मदिन पर मुझे शुभकामनाएं प्रेषित करने वाले सभी शुभचिंतकों का शुक्रिया अदा करती हूँ-----
आज ये दो गीत मेरी पसंद के --
न तुम हमें जानो...



जीवन के दिन...

Sunday, October 24, 2010

ये.....गोल्ड मेडल होता कैसा है?

Gourav Agrawal ने कहा…
@ अर्चना जी आपकी टिप्पणी जैसे गोल्ड मेडल :) आभार :)

मेरी द्वारा की गई टिप्पणी पर इस जबाब ने मुझे मुड़कर देखने को मजबूर कर दिया.........और जब पलट कर (अभी जितना देख पाई) देखा तो जो पाया आप भी देख सकते हैं -----   .ये गोल्ड मेडल होता कैसा है?..


इसे कहते हैं ------बढिया,खूबसूरत,और मनमोहक प्रस्तुती----
पढने ,सुनने ,देखने -----की तीनों विधाओं का भरपूर प्रयोग.......
सहेजने योग्य-- एक यादगार पोस्ट-----मनोज


कही "ये" से "वो" बन कर नींद ढो रहे हैं .....
तो कहीं "वो" बनने के बाद अपना "ये" खो रहे हैं..adaa 


साँप और सीढ़ी
खेली मेरे साथ जिंदगी
निन्यानवे अब तक
पार नहीं हुआ
कई बार चढ़ी
खेल अब भी शुरू है
जीतूंगी भी, मै ही
चाहे खेलना पड़े
 पीढ़ी दर पीढ़ी.....गीत मेरी अनुभूतियाँ


बिछड़े सभी बारी बारी है....
याद आती बाते सारी है....
चाहे भोला हो या हो फत्तू....................मो सम कौन


जिस घर मेरा बचपन बीता वो घर भूल न पाती हूं....
बाट जोहता है भैया मेरा-ये मैं जान जाती हूँ....
इसीलिए माँ -हर सावन में राखी के बहाने आती हूँ....
झूला देख मुझको--माँ पापा की बांहें याद आती है ...
इसीलिए शायद सावन में मेरी आँखें भर आती .........................मेरे गीत 


हर जगह बिखरा पडा था ,
मै था एक माटी का लौंदा,
ले न पाता रूप कोई, मुझको था
धर्म,जाति,क्षेत्रियता ने रौंदा,
मिले कुम्हार जीवन में मुझको,
देख जिन्हें मेरा मन कौंधा,
श्रद्धानवत हूँ उनके आगे,
 बना जिनसे मेरा घरौंदा.........मेरे कुम्हार


पता नहीं कब तक
वही आंसू
फिर वही शांती
फिर वही पैग
फिर वही पिता
फिर वही कुपुत्र
और अनंत तक चलने वाली शान्ति की खोज ....---बाबा के बारे में


...और जब कुछ लिखने का मन होता है
बन्द करता हूँ आँखों को
पलकों की कोर से भी
कुछ नहीं देखता
तुम हर ओर नजर आती हो
कलम अनायास ही चल पड़ती है
कागज पर उकेरने शब्द
एक लम्बी आह लेकर
और उभर आता है तुम्हारा अक्स
लोग उसे भी कविता कहते हैं.....समीरलाल


....मैने कहा-आँखों से
तुमने सुना मुस्कानों से,
आओ मिल-बैठ कुछ बतिया लें
कुछ धीमे से-कुछ दुबके से...
अब भी तुम न मौन रहो
कुछ तो कह दो चुपके से ...कडुआ सच


और जब सपने टूट जाते थे ,
और जरूरते रोती थी ,
तब सरकार सपनों की गिनती कर,
जरूरतों के हिसाब से कागज पर,
आंकडे भरती थी.......... मौन थी मै ओम जी की ये कविता पढकर.....


"कॄष्ण" तुम हो नही ..मुझे लगते हो "राम" से ,
माता से दूर वनवास.. गए हो अपने काम से ...... दिलीप


ये दुख तो बस तब कम हॊ
जब किसी को न कोई  गम  हो
बाँट चुके हम सारी खुशियाँ
इस दुख के बदले में कि
कम से कम मेरे आस-पास
किसी की आँख नम न हो.............
जिनको भी दुख हो वे
आए और ले जाएं कि
मेरी खुशियाँ.. कभी खतम न हो............मौन हूँ मै 


अच्छाई में पाप नहीं,तुम अच्छाई से नहीं डरो.......
बस!! भला सभी का हो जिससे,सदा काम तुम वही करो.....दिलीप 



"तकदीर तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते ,
भला क्यों न हो....."आदत जो होती है उन्हे मुसकुराने की "......तकदीर


वो भी एक घर था
ये भी एक घर है ,
वो घर याद आता है मुझे ,
 ये घर याद करेगा मुझे .....बैचैन आत्मा


..और जब हम फ़ैले
तो सब कुछ समेट लाएं
अपने अन्दर बन कर समंदर... ...मौन की चाह..


आओ मुझसे मिलो
बिना झिझके
गले भी लगो
मैने बना लिया है
मौन का एक खाली घर
जहाँ मैं हूँ और मेरे कंधे
रो कर थके हुओं को
सोने के लिए
एक जादू की झप्पी के बाद
रोने की नहीं होती कोई वजह
और इसीलिए
मेरे घर में हमेशा बची रहती है जगह...       मौन के घर में--


तुम छलना नही छोड़ सकते
तो क्यों मैं छोड़ दूँ अपनी प्रीत ! ....
तुम चाहे जग को जीत लो..
पर मैं जाउंगी तुमको जीत......सुनो उधो



ये अहम ही तो है जो बादल लेह में फटे ,
जहाँ कहा जाता है,वो बरसते भी नहीं ...
फटने न् देना कभी मन में छाए घने बादलों को,
वरना सबके साथ अपना वजूद भी नजर नहीं आएगा ...
तबाही फैलाने को नहीं है ये मन तुम्हारा,
उम्मीद रखो रिश्ते का रेगिस्तान भी हरा नजर आएगा ........कुछ मेरी कलम से .


मैं आदमी अंधेरे का बिखेरता प्रकाश रहूं
टुकड़े टुकड़े होकर बस रुप बदलता रहूं
खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे...
उम्मीद की एक किरण- चमक बाकी हैं कहीं...----अंधेरे का आदमी 


हाँ---- दुख और आँसू.........
हाँ दुख सचमुच ही लहू को ठंडा कर देता है ,
तभी तो आँखें भर आती हैं ,
ओस की तरह ,
और ठंडा लहू जब रगों में दौडता है ,
आँसू जम जाते हैं आँखों में........मौन के खाली घर में ......


मेरे डसने के बाद आदमी जिन्दा नही बचता,
मगर तुम्हारे डसने के बाद तो,
जीते-जी ही- मरते रहता है ......एक साँप धीरे से जा बैठा ----

एक चमकीली... काली-काली कविता.........छोटी-छोटी बातें ...पर मैने पा ली कविता......... एक था काला......


हाए!!! मौला !!!
होश गँवाकर
ये क्या-
कर गया ???
इन्सान तो रस्ते पर आया नहीं
और
शैतान गुजर गया..... देखो न !!!!!!!! कब तक वो देखता ??


तडप-तडप के जी रहा अब,कि उसका अक्स भी बदल गया,
जला था सिर्फ़ वो,पर उसका सब कुछ झुलस गया........शबनमीं लू में................



आशा करती हू ------
हंसों के वे जोडे वापस आएंगे
रिश्तों के टूटे मोती भी साथ लाएंगे
गूंथेंगे माला
पहनाएंगे दादी को
सुनाएंगे कहानी
और याद करेंगे नानी को
खेलेंगे खेल और
सूने घर में भर देंगे शोर
निराश न हों
होगी एक दिन फ़िर वही सुहानी भोर......जुडेगी फ़िर रिश्तों की डोर


मुझे याद करते ही हाजिर रहूंगी...
माँ हूँ तेरी---मुँह से कुछ न कहूंगी.....


और अगर फ़िर भी बच जाए ,
तो बारिश मे भी लाएं,
हम जैसे नन्हे मुन्नों को,
इंद्रधनुष दिखलाएं..............सूरज से विवेक पूर्ण रिक्वेस्ट .............


जरूरतें होने लगती हैं
सपनों पर हावी
पर विश्वास
जिन्दा रखता है
सपनों को भावी....."
या
जरूरतें होने लगती है
हावी--- सपनो पर ...
और विश्वास जिन्दा रहता है
भावी सपनों पर .....विश्वास और सपने ---


माँ-----
कब याद नहीं आती ?.....
हर पल,हर दिन .....
मेरे साथ रहती है .....
मुझसे बातें करती है ....
मुझे छोड कर कहीं नहीं जाती है .....
आज भी आयेगी .....और
मेरे साथ केक खाएगी................Samir Lal


वाह दीपक उस्ताद जी को भी झिलवा ही दिया ...हा हा हा...एक मेल और करो..थोड़ी और व्याख्या.....

Thursday, October 21, 2010

महकता गुलाब...जो कहीं खो गया...

अतीत का वो सुनहरा पन्ना
उड़ गया है मेरी डायरी से
जिस पर रखा था मैंने
खुशबू बिखेरता एक गुलाब
पता नहीं वो आँधी थी,
या कोई तूफ़ान
जिसमें बिखरा
मेरा सब सामान
दूर-दूर उड़कर अब
हुआ आँखों से ओझल
समेटते-समेटते अब तो
मेरा दिल भी हो चुका बोझल
सोचती हूँ अब खुद भी बिखर जाऊँ
उसी हवा संग उड़ जाऊँ
जिसने मेरा पन्ना उड़ाया
और खूशबू बिखेरता मेरा गुलाब चुराया......

Tuesday, October 19, 2010

बोलो ठीक है न......एक पुरानी पोस्ट.............................

जो कुछ चाहो , वो मिल ही जाए ,
ऐसा कभी नही होता है ।
इसलिए जो कुछ मिले ,
उसे " चाह " लेना ही ठीक है ।

जो कुछ सीखो , सब आ जाए,
ऐसा कभी नही होता है ।
इसलिए जो कुछ आ जाए ,
उससे ही " सीख " लेना ठीक है ।

जो कुछ लिखा है , वो सब पढ लिया हो ,
ऐसा कभी नही होता है ।
इसलिए जो कुछ पढ लिया हो ,
उसे ही " याद रख लेना " ठीक है ।

जो कुछ सुना , सब समझ लिया ,
ऐसा कभी नही होता है ।
इसलिए जो कुछ " समझा " ,
उसे ही " कर " लेना ठीक है।

जो कुछ बोला , सब काम का हो ,
जरूरी नही होता है ,
लेकिन बडों की कही हर बात को ,
शान्ति से " सुन " लेना ठीक है ।

जो कुछ खो गया , वो फ़िर से मिल जाए ,
ऐसा हमेशा नही होता है ,
इसलिए जो मिल गया ,
उसे ही " सहेज " लेना ठीक है ।

खुशी और गम , किसी के पास ज्यादा होते है ,
किसी के पास कम ,
इनको समान करने के लिए ,
आपस मे " बांट " देना ही ठीक है ।

किसी भी उम्र में कोई भी व्यक्ति ,
कभी परिपूर्ण नही होता है ,
इसलिए हर छोटे- बडे की कही बात पर ,
" ध्यान " देना ही ठीक है ।

कोई भी संस्कृति या धर्म ,
किसी को बुराई नही सिखाता ,
इसलिए हर धर्म और संस्कृति को ,
हमेशा " मान " देना ही ठीक है ।

लाल्लालाला ssssssssssssआ...लालालालाआssssssssssss ज़ूज़ूज़ूज़ूऊऊऊऊऊज़ूज़ूज़ूज़ूज़ूज़ू--हा हा हा हा

करना तो था श्री महिषासुर मर्दिनी स्त्रोत्र...................पर माईक काम नहीं कर रहा ......पहले रिकार्ड कर चुकी कोई प्रार्थना ढूंढी....................नहीं मिली.................मिला तो ये गीत.........उतना बुरा भी नहीं पर तब भी कोई मेहमान के आ जाने से बीच में रोकना पड़ा था...........पर ये तो अपना स्टाईल है .......यही सही......एक नया प्रयास..............हा हा हा......पर माईक ठीक होते ही पहले स्त्रोत्र......(या कहीं से जुगाड़ के (रचना या देवेन्द्र जिन्दाबाद) )..पक्का........
सारे ब्लॉगर साथियों और उनके परिवार को नवरात्री पर्व और दशहरे की शुभकामनाएं.............मेरी और मेरे परिवार की ओर से........ईश्वर सबको हमेशा खुश रखे इसी कामना के साथ ......सुनिये ये गीत (जैसा भी है ...)

 

Friday, October 8, 2010

चित्र वत्सल का.....गीत ललित शर्मा जी का और स्वर मेरा (अर्चना चावजी)

 ये गीत ललित शर्मा जी के ब्लॉग "शिल्पकार के मुख से" पर आप पढ़ सकते हैं।-(  इस ब्लॉग के सारे लेखों पर अधिकार सुरक्षित हैं इस ब्लॉग की सामग्री की किसी भी अन्य ब्लॉग, समाचार पत्र, वेबसाईट पर प्रकाशित एवं प्रचारित करते वक्त लेखक का नाम एवं लिंक देना जरुरी हैं.)
 




 ललित जी का एक और गीत यहाँ सुन सकते हैं आप


Tuesday, October 5, 2010

मै , जब छोटी हो गई थी......आज फ़िर हो गई हूँ।

"अब तक अपने बच्चों को उंगली पकड़ कर यहाँ तक लाई हूँ,अब उन्होंने मेरी उंगली पकड़ ली है। पढ़ने के लिए दोनों बच्चे घर से दूर चले गए है, फ़ोन पर बातें होती रहती है, मगर जब बेटे से कहा कि जब तुम लोग यहाँ छुट्टियों में आते हो तो ऐसा लगता है कि  अब बहुत हो गया, मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना रहता है, मगर ज़रूरी बातों के अलावा कुछ कह ही नही पाती और तुम्हारे जाने का समय हो जाता है, तो उसने सुझाया- आप जो कहना चाहते हो उसे लिख दो।
मगर कैसे ? पूछने पर उसने ये ब्लॉग बना दिया |जब भी फ़ोन लगाती--पूछता लिखा की नही?  
मेरा जबाब होता-- लिखूंगी।
यहाँ तक कि फ़ोन लगाने के पहले ही डर लगने लगा कि फ़िर पूछेगा तो???? 

बेटी कहती हमें तो कुछ करने के लिये कैसे कहते हो अब आप करो तो !!!!|आखीर एक दिन तय कर ही लिया की आज तो कुछ न कुछ लिख ही दूंगी चाहे पसंद आए या न आए,पर अब जबसे कमेंट्स आने लगे (कभी कभी ) तो डर लगता है कि वे सब आगे भी पढ़ने की उम्मीद से कमेंट्स करते हैं। कल ही बेटे से कहा है -तूने मुझे मुसीबत में डाल दिया है तो हँसने लगा। .......तब तो उससे बोल दिया कि हंस ले, हंस ले मगर अब समझ में आ रहा है की बच्चे, माँ की उंगली छुडा कर क्यों भागते है!!!!!!!!!! (जबरदस्ती करवाती है न सब )"

पहले लिखी थी ४फ़रवरी२००९ को  ये पोस्ट कुछ इस तरह


आज वत्सल का जन्मदिन है, (समय हो गया ये लिखे उसे ) तो याद आई---(फ़िर से देखा और सुधारा बहुत गलतियाँ थी मेरी --हा हा हा )
और उसने भी तो नया किया है इसलिए


जन्मदिन की बधाई व शुभकामनाएं--ईश्वर तुम्हे वह सब दे जिसके तुम हकदार हो...आशीष

Monday, October 4, 2010

आज सिर्फ़ महफ़ूज़ के लिए------

अभी पाबला जी के ब्लॉग पर ये दुखद समाचार पढा---हम फ़िर साथ खेलेंगे ..
और याद आया ये गीत ....(और कुछ लिखने के लिए शब्द नही है आज )

Sunday, October 3, 2010

सही है

कागज बनता है बांस से ,
पानी का मोल है प्यास से,
चुभन होती है -फांस से,
उम्मीद बंधती है -आस से,
जीवन चलता है- साँस से,
जीवन में रस घुलता है -हास से,
कुछ रिश्ते होते है -ख़ास से,
खुशी होती है- अपनों के पास से,
और सम्बन्ध कायम रहते है
-- विश्वास से ।




अगर सुनना चाहे कुछ तो यहाँ सुने कुछ ----

१ ----न् दैन्यं न् पलायनम 

२ ---मिसफिट :सीधीबात 

३ ---आँख का पानी 

४ ---हिन्दी,मराठी,या गुजराती 

५ ---तिरंगा 

६---जगराता