@ अर्चना जी आपकी टिप्पणी जैसे गोल्ड मेडल :) आभार :)
इसे कहते हैं ------बढिया,खूबसूरत,और मनमोहक प्रस्तुती----
पढने ,सुनने ,देखने -----की तीनों विधाओं का भरपूर प्रयोग.......
सहेजने योग्य-- एक यादगार पोस्ट-----
मनोज
कही "ये" से "वो" बन कर नींद ढो रहे हैं .....
तो कहीं "वो" बनने के बाद अपना "ये" खो रहे हैं.
.adaa
साँप और सीढ़ी
खेली मेरे साथ जिंदगी
निन्यानवे अब तक
पार नहीं हुआ
कई बार चढ़ी
खेल अब भी शुरू है
जीतूंगी भी, मै ही
चाहे खेलना पड़े
बिछड़े सभी बारी बारी है....
याद आती बाते सारी है....
जिस घर मेरा बचपन बीता वो घर भूल न पाती हूं....
बाट जोहता है भैया मेरा-ये मैं जान जाती हूँ....
इसीलिए माँ -हर सावन में राखी के बहाने आती हूँ....
झूला देख मुझको--माँ पापा की बांहें याद आती है ...
इसीलिए शायद सावन में मेरी आँखें भर आती ........................
.मेरे गीत
हर जगह बिखरा पडा था ,
मै था एक माटी का लौंदा,
ले न पाता रूप कोई, मुझको था
धर्म,जाति,क्षेत्रियता ने रौंदा,
मिले कुम्हार जीवन में मुझको,
देख जिन्हें मेरा मन कौंधा,
श्रद्धानवत हूँ उनके आगे,
पता नहीं कब तक
वही आंसू
फिर वही शांती
फिर वही पैग
फिर वही पिता
फिर वही कुपुत्र
...और जब कुछ लिखने का मन होता है
बन्द करता हूँ आँखों को
पलकों की कोर से भी
कुछ नहीं देखता
तुम हर ओर नजर आती हो
कलम अनायास ही चल पड़ती है
कागज पर उकेरने शब्द
एक लम्बी आह लेकर
और उभर आता है तुम्हारा अक्स
लोग उसे भी कविता कहते हैं.....
समीरलाल
....मैने कहा-आँखों से
तुमने सुना मुस्कानों से,
आओ मिल-बैठ कुछ बतिया लें
कुछ धीमे से-कुछ दुबके से...
अब भी तुम न मौन रहो
और जब सपने टूट जाते थे ,
और जरूरते रोती थी ,
तब सरकार सपनों की गिनती कर,
जरूरतों के हिसाब से कागज पर,
आंकडे भरती थी..........
मौन थी मै ओम जी की ये कविता पढकर.....
"कॄष्ण" तुम हो नही ..मुझे लगते हो "राम" से ,
माता से दूर वनवास.. गए हो अपने काम से ......
दिलीप
ये दुख तो बस तब कम हॊ
जब किसी को न कोई गम हो
बाँट चुके हम सारी खुशियाँ
इस दुख के बदले में कि
कम से कम मेरे आस-पास
किसी की आँख नम न हो.............
जिनको भी दुख हो वे
आए और ले जाएं कि
अच्छाई में पाप नहीं,तुम अच्छाई से नहीं डरो.......
बस!! भला सभी का हो जिससे,सदा काम तुम वही करो....
.दिलीप
"तकदीर तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते ,
भला क्यों न हो....."आदत जो होती है उन्हे मुसकुराने की "......
तकदीर
वो भी एक घर था
ये भी एक घर है ,
वो घर याद आता है मुझे ,
..और जब हम फ़ैले
तो सब कुछ समेट लाएं
आओ मुझसे मिलो
बिना झिझके
गले भी लगो
मैने बना लिया है
मौन का एक खाली घर
जहाँ मैं हूँ और मेरे कंधे
रो कर थके हुओं को
सोने के लिए
एक जादू की झप्पी के बाद
रोने की नहीं होती कोई वजह
और इसीलिए
तुम छलना नही छोड़ सकते
तो क्यों मैं छोड़ दूँ अपनी प्रीत ! ....
तुम चाहे जग को जीत लो..
ये अहम ही तो है जो बादल लेह में फटे ,
जहाँ कहा जाता है,वो बरसते भी नहीं ...
फटने न् देना कभी मन में छाए घने बादलों को,
वरना सबके साथ अपना वजूद भी नजर नहीं आएगा ...
तबाही फैलाने को नहीं है ये मन तुम्हारा,
मैं आदमी अंधेरे का बिखेरता प्रकाश रहूं
टुकड़े टुकड़े होकर बस रुप बदलता रहूं
खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे...
हाँ---- दुख और आँसू.........
हाँ दुख सचमुच ही लहू को ठंडा कर देता है ,
तभी तो आँखें भर आती हैं ,
ओस की तरह ,
और ठंडा लहू जब रगों में दौडता है ,
आँसू जम जाते हैं आँखों में........मौन के खाली घर में ......
मेरे डसने के बाद आदमी जिन्दा नही बचता,
मगर तुम्हारे डसने के बाद तो,
जीते-जी ही- मरते रहता है ......एक साँप धीरे से जा बैठा ----
एक चमकीली... काली-काली कविता.........छोटी-छोटी बातें ...पर मैने पा ली कविता......... एक था काला......
हाए!!! मौला !!!
होश गँवाकर
ये क्या-
कर गया ???
इन्सान तो रस्ते पर आया नहीं
और
शैतान गुजर गया..... देखो न !!!!!!!! कब तक वो देखता ??
तडप-तडप के जी रहा अब,कि उसका अक्स भी बदल गया,
जला था सिर्फ़ वो,पर उसका सब कुछ झुलस गया........शबनमीं लू में................
आशा करती हू ------
हंसों के वे जोडे वापस आएंगे
रिश्तों के टूटे मोती भी साथ लाएंगे
गूंथेंगे माला
पहनाएंगे दादी को
सुनाएंगे कहानी
और याद करेंगे नानी को
खेलेंगे खेल और
सूने घर में भर देंगे शोर
निराश न हों
होगी एक दिन फ़िर वही सुहानी भोर......जुडेगी फ़िर रिश्तों की डोर
मुझे याद करते ही हाजिर रहूंगी...
माँ हूँ तेरी---मुँह से कुछ न कहूंगी.....
और अगर फ़िर भी बच जाए ,
तो बारिश मे भी लाएं,
हम जैसे नन्हे मुन्नों को,
इंद्रधनुष दिखलाएं..............सूरज से विवेक पूर्ण रिक्वेस्ट .............
जरूरतें होने लगती हैं
सपनों पर हावी
पर विश्वास
जिन्दा रखता है
सपनों को भावी....."
या
जरूरतें होने लगती है
हावी--- सपनो पर ...
और विश्वास जिन्दा रहता है
भावी सपनों पर .....विश्वास और सपने ---
माँ-----
कब याद नहीं आती ?.....
हर पल,हर दिन .....
मेरे साथ रहती है .....
मुझसे बातें करती है ....
मुझे छोड कर कहीं नहीं जाती है .....
आज भी आयेगी .....और
मेरे साथ केक खाएगी................
Samir Lal
वाह
दीपक उस्ताद जी को भी झिलवा ही दिया ...हा हा हा...एक मेल और करो..थोड़ी और व्याख्या.....