Tuesday, December 16, 2014

भोर का राग

अपनी नानी याद आ रही है मुझे भी .....अभी -अभी भोर का मायरा राग आलाप बंद हुआ है,पता नहीं क्या सूझा रात्रि को पहले पहर का भी सुनाया .....तब तो नानी ने सुन-सुन के  समापन करवा  लिया तो नानी का हाथ तकिया बनाना पड़ा .....अब माँ की गोद में बिराज कर ही सुनाया .... राग तो बंद हुआ मगर माँ हिली तो फिर शुरू होने का खतरा ..... पापा थक के अब  सारंगी बजा रहे हैं ......

फेसबुक पर मॉर्निंग वाक किया तो घुघूती बासुती जी कहते हुए दिखी -
वाह बारहखड़ी!!

Thursday, December 11, 2014

सांचा नाम तेरा ...

जब भी ये गीत कानों में पड़ता है .... विश्वास बढ़ता हुआ सा लगता है ....

Tuesday, December 9, 2014

चाय की चुस्की विथ सूरज भाई व्हाया अनूप शुक्ल



" पुलिया पर दुनिया " के लेखक ,ब्लॉगर और फेसबुकिया साथी अनूप शुक्ल जी का एक स्टेटस सुनिए यहाँ - 



और पढ़िए यहाँ-

लो आ गयी उनकी याद
पर वो नहीं आये।
गाना धीमे बज रहा है। पूछा तो चाय वाले ने बताया-'मौसम की गड़बड़ी है।रेडियो स्टेशन से ही धीमे बज रहा है।'
आसमान में सूरज भाई ऐसे दिख रहे हैं मानो अपने चारो तरफ रुई लपेटे अधलेटे हैं।लगता है उनके यहाँ कोई दर्जी नहीं है।होता तो रुई समेट के ठीक ठाक रजाई सिल देता।
सूरज भाई बादलों की रुई के बाहर मुंह निकाले किरणों को ड्यूटी बजाने का निर्देश दे रहे थे।किरणों ने जब देखा कि सूरज खुद अलसाये हुए हैं तो वे भी आराम-आराम से अपना काम अंजाम दे रही हैं। कोहरा, जो कल किरणों को देखते ही फूट लिया था, आज बेशर्मीं से टिका हुआ था।कहीं कहीं तो किरणों को छेड़ भी दे रहा था। किरणें भी बचबच कर टहल रहीं थीं। झाड़ी, घने पेड़ के नीचे जाने की बजाय खुल्ले में कई किरणों के साथ सावधानी से टहल रहीं थीं।
धरती के कुछ हिस्से सूरज की इस किरण और ऊष्मा सप्लाई से नाराज होकर सूरज की तरफ मुट्ठी उठाकर शेर पढ़ रहे थे:
वो माये काबा से जाकर कर दो
कि अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे जरे को
खुद चमकना सिखा रहा हूँ।
सूरज भाई इस शेर को सुनकर बमक गए और बादलों का सुरक्षा कवच तोड़ कर बाहर निकल आये।चेहरा तमतमाया हुआ था।इधर उधर माइक की तलाश की लेकिन शुक्र है कि मिला नहीं होगा वर्ना चमकना छोडकर भाइयों बहनों करने लगते। सूरज अरबों बरसों से अपना काम करता आ रहा है इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ लफ़्फ़ाजी के लिए माइक और रेडियो नहीं है।
गाना बजने लगा:
'तुमने क्या समझा हमने क्या गाया
जिंदगी धूप तुम घना साया।'
जाड़े के मौसम में यह गाना बेमेल है।जाड़े में घूप की जरुरत होती है साये की नहीं।लेकिन जैसा हो रहा है वैसा की गाना भी बजेगा। चोरों से निजात दिलाने के लिए गुंडे सर्मथन मांग रहे हैं।
तू न मिली हम जोगी बन जायेंगे
तू न मिली तो।
गाना लगता है किसी बूढ़े राजनेता का बयान है।वह सत्ता से कह रहा है अगर मुलाक़ात नहीं हुई तो समझ लो। जोगी ही बनकर बदला लेंगे। तुझे अपने इशारे पर नचाएंगे।सत्ता हलकान है-'इधर सठियाया राजनेता उधर ढोंगी जोगी।वह जाए तो जाए कहाँ।'
'ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा
तेरा गम कब तलक मुझे तोड़ेगा।'
इस सवाल का जबाब भला मिला है किसी को।हमने सूरज भाई से चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
अरे छोड़ो यार लाल, हरा,केसरिया सब झांसा देने के तरीके हैं। अपना काम करो मस्त रहो। अभी तो एक चाय और पिलाओ। जाड़ा जबर है।
हम सूरज भाई को चाय पीते हुए देख रहे हैं।बीच बीच में मुंह से भाप टाइप निकालते हुए वे जताते जा रहे थे कि जाडा पड़ने लगा।
सुबह हो गयी। सुहानी भी है।


Sunday, December 7, 2014

कामायनी (भाग २) आशा

बहुत दिनों से मन था इसे रिकार्ड करने का ...कई प्रयास किए, मगर एक तो मेरी कम पुस्तक पढ़ने  की आदत और दूसरे इतनी बड़ी रचना ,नेट से  स्क्रीन पर देखते-देखते आंखें थक जाती ... .... हर बार अधूरा करके छोड़ देती लगता नहीं हो पायेगा
लेकिन इस बार जब दशहरे पर राँची गई ,तो बाज़ार में उस दूकान को देख मन माना नहीं जहाँ २० साल पहले जाया करती थी बच्चों के लिए कहानियों की किताबें लेने ... वत्सल और नेहा से बताया कि ये वही दूकान है तो हम तीनों अन्दर गए मुझे छोड़ दिया किताबों के स्टैण्ड के पास ...देखते -देखते नज़र पड़ी बोर्ड पर लिखा था - पुराना हिन्दी साहित्य ..... एक काउंटर अलग से था ...ऊपर में ...चढ़कर गई तो कई साहित्यकारों जिनके नाम सुने थे की किताबें नज़र आई , सामने ही थी - जयशंकर प्रसाद जी की "कामायनी"... बस खरीद ली और रिकार्ड किया पहला भाग -चिंता को ...



और आज किया दूसरा भाग आशा.
कैसा हुआ ये तो आप ही सुनकर बता पाएंगे ...और गलतियों के लिए माफ़ भी करेंगे ... सुझाव भी देंगे तो कोशिश करूंगी आगे के भाग को और अच्छे से कर पाउं ....
और प्रोत्साहन मिलेगा तो जल्द से जल्द पूरा करने की भी कोशिश रहेगी मेरी ...आप तो जानते ही हैं-"मायरा" में मन उलझा हुआ है मेरा .....

डाउनलोड करिए या सुनिए यहाँ -


या यहाँ से -

Saturday, December 6, 2014

विरह ...

सावन आँगन बरसे बूँदे,पलकन बोझा ढोय
सरर सरर मोरी चुनरी सरके सिहरन देह मा होय...

चाँद बिछावै तारा रंगोली जब चाँदनी आँगन धोय
सरस सुगंध मदन मन मोहे, सजन बुला दे कोय...

कजरा गजरा महावर रूठे, रोम-रोम हुलसाय
सखी सुन,मोरो चैन भी खोयो,विरह मोहे तड़पाय .....

-अर्चना
और इसे मैंने गाने की कोशिश भी की.... 
सुनना चाहें अगर ....

Friday, December 5, 2014

अमॄत बूँद




एक पल कोई साथ चले तो,बनता एक अफसाना है,
कल फिर लौट के जाना है ,अपना जहाँ ठिकाना है। 

पथ के कांटे चुनते - बीनते हमको मंजिल पाना  है,
मिल जाए जो  दीन -दुखी तो अपना हाथ बढ़ाना है।

चलते-चलते मिल जाते साथी,बस बतियाते जाना है,
मंजिल की तुम राह न ताको मिलकर चलते जाना है।

"बूँद"-"बूँद" से भरेगी गागर,बस हमको छलकाना है,
हर एक जगह पर कुंभ लगेगा,अमॄत बूँद गिराना है ..... 
-अर्चना

Thursday, December 4, 2014

जी ...वो.... , डर गई थी मैं....

-मेडम प्लीज....
बाजू से आवाज आई तो मुड़कर देखा मैंने , एक पुरानी स्टूडेंट की माँ ने मुझे पुकारा था..
- मेडम प्लीज थोड़ा रूकिए , आपसे एक बात करनी है..
मैं रूक गई, - जी कहिए कहते हुए ...
उन्होंने कहा -दो मिनट.. और उन शिक्षिका से जल्दी-जल्दी बात खतम की जिनसे मिलने के लिए आई थीं।
उनकी बेटी अच्छा खेलती थी , मुझे याद आया एक बार टीम में सिलेक्शन भी हुआ था ,मगर तब बाहर भेजने से मना कर दिया था घर से तो मैंने उसके माँ-पिताजी से बात की थी और राजी किया था भेजने को ... तब पिता ने बड़े खुश होते हुए अपनी सहमति जताई थी कहा था कि मैं भी खिलाड़ी रहा हूँ ....इसकी मम्मी ही मना करती है , डरती है ,बाहर भेजने से ...
तभी वे मेरे और निकट आ गई और पास आकर कहा -
- नमस्ते , माफ़ कीजिए आपको ऐसे रोकना पड़ा, पर बहुत दिनों से आपसे एक बात बताना चाहती थी ,आज आप दिख गई तो....
-जी नमस्ते ,कोई बात नहीं ... कहिए क्या कहना है आपको ?मैंने पूछा
- जी आपने उनसे कुछ बात की थी आठ दस  माह पहिले....कुछ फ़ेसबुक ....अपने पति के बारे में याद दिलाया उन्होंने... 
मुझे याद आया, मैंने बताया  - हाँ ,हाँ .. वो आजकल उम्र गलत डालकर बच्चे अकाउंट बना लेते हैं, लेकिन मुझे फ़्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज देते हैं....मैं एड कर लेती हूँ ...और समय-समय पर कुछ अच्छा पढ़ने की लिंक देती रहती हूँ ......आपकी बेटी के फोटो पोस्ट देखे थे, कुछ अजीब से थे ,अच्छे नहीं लगे थे मुझे  सेल्फ़ी और चेहरा पहचान कर नाम देखा तो नाम अलग था.... मुझे कुछ गलत लगने पर मैंने मेसेज में पूछा भी था कि- नाम गलत क्यों है? तो कोई जबाब नहीं मिला था ......
.... और अचानक एक-दो दिन बाद ही उसके पापा से मुलाकात हो गई तो उनसे पूछा था कि बेटी के पास फोन है क्या? नेट यूज करती है क्या ?,उन्होंने कहा- है तो, मगर नेट यूज नहीं करती ,मैंने कहा -तो फिर साईबर कैफ़े वगैरह जाती हो ...
 उन्होंने ना ही कहा था... बताया था  कि बस उसकी मम्मी का फोन यूज करती है कभी-कभी..और उसमें नेट है....और पूछा -मगर क्यों?
और मैंने उन्हें बताया था कि उसकी फोटो देखी थी, इसलिए सहज पूछा... 
-नहीं-नहीं , उसकी हो ही नहीं सकती ,आपने गलत देख लिया होगा ...कहते हुए उन्होंने अपनी बात रखी थी ...मैंने कहा था कि कोई बात नहीं ,हो सकता है मुझसे गलती हुई हो, आज कन्फ़र्म करके फिर आपको फोन करूंगी, और उनका नम्बर ले लिया था.... 
घर जाकर देखा भी था तो अकाउंट डिलिट हो चुका था ...मैंने फिर कोई बात नहीं की ...मैं तो उस बात को भूल भी गई अब ....
- जी , जी ... उससे बहुत गड़बड़ हो गई थी... बात बहुत बिगड़ गई....
- मगर हुआ क्या ? मुझे तो बताना ही था....
- जी, वो तो सही है , मगर उस बात पर उन्होंने बहुत पिटाई की थी बेटी की भी और मुझे भी बहुत पीटा ...
- अरे! .... ...आप मिलती तो आपको भी मैं यही बताती.... अगर ऐसा हुआ तो उन्होंने बहुत गलत किया , उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था..
-जी वही आपको बहुत दिनों से मिलकर बताना चाहती थी ,बात तलाक तक आ गई थी ...उन्होंने तो मेरे माता-पिता को भी बुलाकर बोल दिया था कि -अपनी बेटी को ले जाईये यहाँ से ....खुद भी बिगड़ी हुई है और बेटी को भी बिगाड़ रही है ........उनके लिए तो अच्छा ही होता न !
-अरे!!! मैं अवाक थी ....
-उस दिन घर आकर वे बहुत नाराज हुए थे ,और गुस्से में डाँटा भी था मुझे और बेटी को भी फ़िर समझाया भी उसे ... फिर किसी काम से बाहर चले गए ,मैंने सोचा बात खतम हो गई ... मगर दूसरे दिन तो उनका गुस्सा चरम पर था , बहुत पी कर आए और घर पर ही मेरे और बच्चों(एक बेटा भी है उनका) के सामने बॉटल लेकर बैठ गए, धमकाने लगे - कि देखो अब मैं क्या करता हूँ ....वो वाला मोबाईल भी फ़ेंककर तोड़ दिया , आज भी अलमारी में रखा है , कभी दिखाउंगी आपको ..... 

मैंने पूछा - क्या आप जानती थी कि बेटी  फ़ेसबुक यूज करती है ? और उसने किस तरह के फोटो पोस्ट किए है? और क्या उसके पापा को ये बात पता नहीं थी? 

उन्होंने कहा- जी ,मुझे पता था, उनके पापा को नहीं बताया था मैंने, उन्होंने पहले ही मना किया था, लेकिन आप तो जानती है आजकल दूसरे बच्चों को देखकर बच्चे का मन भी होता है , और एकदम बन्द तो नहीं कर सकते हैं सब, रोकटोक लगा देंगे तो उतना ही जानने की इच्छा बढ़ती है, और बच्चे छुपकर करेंगे फिर..  मैंने ही बनवाया था,हाँ मैंने उसे समझाया था कि फोटो वगैरह न पोस्ट करे....

- मगर आपको उन्हें(आपके पति को)बताना चाहिए थी यही बात ...

-एक बात बताईये जिस आदमी के साथ १७-१८ साल बिता लिए हों और फिर भी उसे मुझ पर भी शक हो ,किसी से बात नहीं करने देना,मिलने नहीं देना आदि....जिसको खुद करे तो वही बात अच्छी लगे और दूसरे करें तो बुरी जैसे वे अपनी पुरानी मित्र ?परिचित से मिलें तो मेरे सामने ही गले मिलें और अगर मैं ऐसा करूं तो जमीन-आसमान एक हो जाए ....  जिस आदमी को आप समझा नहीं सके इतने सालों बाद भी तो उसे वैसे ही छोड़ देना चाहिए न मैडम ....क्या किया जा सकता है , पर बहुत कुछ तो जमाने के साथ भी चलना पड़ता है बच्चों को आगे बढ़ाना है तो उनको भी सारी जानकारी होनी चाहिए या नहीं ?...

- मुझे ये सब नहीं पता, मैंने तो सोचा भी नहीं कि वे इस तरह बर्ताव करेंगे,वे तो खुद खिलाड़ी भी रहे हैं, बताया था मुझे .... लेकिन एक बात बताईये - नाम भी अलग था... मैंने तो फोटो देखकर ही पहचाना था, और मैं उसे पहचानने में भूल कैसे कर सकती हूँ.?
- जी वो मैंने ही कहा था कि चेहरा और नाम एक हो तो बहुत मुश्किल हो सकती है, नाम से तो पूरा समाज जान जाएगा , " ........" लिख देने से ही सारा समाज बातें बनाने लगेगा ... और हमारे समाज में तो बस लोगों को मौका ही मिलना चाहिए ....

मैं सन्न थी सारी बातें जानकर.... हैरान थी ऐसे माता-पिता से मिलकर...और मुझे याद आया कि उस बच्ची के पापा से बताने के बाद मैंने एक बार मेरे सामने आने पर उससे पूछा भी था कि तुम्हारा अकाउंट फ़ेसबुक पर था न ? ...जी वो अब नहीं है डिलिट कर दिया ...... कह कर नजरें झुका ली थी उसने... मैंने कहा था -हाँ वही ,,तुम्हारे पापा से बताया था मैंने....और मेरे मेसेज का जबाब क्यों नहीं दिया था तुमने तब?
 .... " जी ...वो.... , डर गई थी मैं" बस इतना ही कहा था उसने ...... बाकि कुछ भी बताया  नहीं था मुझसे ...
अगर माँ से मुलाकात न होती तो मैं कभी जान भी नहीं पाती .... :-(
...

सारी बात सुनकर मैंने उस बच्ची की माँ से सॉरी कहा ,कहा कि- आपकी भी गलती है,आपको छुपाकर नहीं करना चाहिए  मुझे नहीं पता था कि इतना कुछ हो जाएगा ,मगर आप यकीन रखिए अगर उनसे पहले आप मुझसे मिली होती तब भी मैं यही सब आपसे कहती .....
- जी बिलकुल ठीक है आपका कहना , अच्छा लगा कि आप इतना ध्यान रखती हैं , लेकिन कभी-कभी इन्सान जो बाहर से दिखता है वैसा होता नहीं .... भीतर से ....

मैंने पूछा- अब सब ठीक है?
- जी अब तो ठीक है, नया मोबाईल भी दिलवा दिया है बेटी को ...और अब बेटी को अपने किसी भी दोस्त से मिलना होता है तो पहले ही पापा से बता देती है कि हम एक क्लास में  है और इससे कॉपी -किताब लेनी है ...या कहीं जाना है तो किन-किन दोस्त और सहेली के यहाँ और किनके साथ जा रहे हैं ......

.
.
इस बात को बहुत साल हो चुके ... याद आई .....जब घुघुति बासुती जी ने फ़ेसबुक पर सवाल किया था-
Ghughuti Basuti अर्चना चावजी, क्या इस उम्र में भी अपनी फोटो नेट पर न आने देने के पीछे अचेतन में छिपा यह कारण उस समय के हरियाणा के बारे में कुछ कहता है? और उस जमाने में तो स्त्रियों का अनुपात भी इतना बुरा न रहा होगा. टी वी भी नहीं आया था. पोर्न भी नहीं था. जो था वह वहां की महान संस्कृति भर के कारण था.

मैंने जबाब दिया था -

अर्चना चावजी कुछ ? ... बहुत कुछ कहता है .... मैं हमेशा सोचती हूँ... सोचती रही हूँ ... खासकर आपके फोटो न डालने पर .... कोई कारण समझ नहीं आता था... लेकिन अब लग रहा है,आप जहाँ जन्मी होंगी और मैं जहाँ जन्मी ... जमीन -आसमान का फर्क रहा होगा....



हालांकि डरते तो हम भी थे .... पर इतने की  कल्पना नहीं की थी.....

ज्यादातर दबंग कहलाने या कहलाना पसंद करने वाले लोगों का दब्बूपना उनके व्यवहार और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले रीति-रिवाजों में दिखाई देता है.........

Wednesday, December 3, 2014

विदा कहना और करना आसान नहीं ...

2/12/1996 से....... 2/12/2014....... अब तक
18 साल......

पर उस दिन को ,उस पल को
भूलना आसान नही,

भुलाना भी क्यों?
और कैसे?
जबकि
अंतिम सांस की आहट
और खड़खड़ाहट
गूंजती है अब भी
कानों में
और ये आँखे बंद
होकर भी नहीं होती
विदा कहना
और करना
आसान नहीं....
.
वचनबद्ध हूँ...
रहूँगी सदा.....

महसूसती हूँ
आज भी
अंतिम स्पर्श
.....
और

सुनाई देती है चीख
अंतिम मौन की....

रात भर का साथ
और निर्जीव देह
एक नहीं दो
.
बस!
दिखाई देता है
जीवन यात्रा
का पूर्णविराम....
जहाँ लिखा था-
ॐ नमो नारायणाय......
.
.
वक्त के साथ
सफर जारी है मेरा

ॐ शांति शांति शांति......

Tuesday, December 2, 2014

परिवार अब तक

कुछ लिखने कहने की जरूरत नहीं...
ईश्वर के आशीष से ....

Tuesday, November 25, 2014

पहली सालगिरह

प्रिय सनी
"....."
पिछले साल इसी दिन पत्र लिखा .... एक तरफा पत्र....
बारी मेरी है,तो थोड़ा न थोड़ा लिखना ही पड़ेगा वादे के अनुसार....सो इस बार भी ....

आज याद करते हैं पहली सालगिरह की..... खूब यादगार दिन ....
सालगिरह से पहले ..वत्सल था और इसी दिन छोटे भैया की शादी तय थी.....पूरी बस भर बरात लेकर आए थे वत्सल के नामकरण का प्रोग्राम भी साथ ही निपटा लिया था हमने..... माँ के घर ही रुके थे सब फिर बाराती बने......
.
.
.
और हमको तो वक्त भी नहीं मिला था विश करने का एक-दूजे को.... मैं वत्सल में व्यस्त और तुम घर की शादी में.....
दूसरे दिन निकलना भी था वहाँ से भोपाल और दो दिन में आसनसोल.......

फ़ोटो 14 जनवरी 1986 का है वत्सल का आसनसोल का और ये "दागिने"बनाए थे आई ने घर पर खुद चिरौंजी बनाकर ....खूब याद है......
बस इतना ही......
.
.
आज बहुत वक्त है पर विश आज भी दूर से करना मजबूरी है.......
.
मेरा निकलना भी तय नहीं ......
मायरा ने ऊँगली थाम रखी है...... एक मेरी और एक तुम्हारी वाली भी मेरी ही.....
.
कौन मायरा?...... ये तो बताना नहीं पड़ेगा न!:P..आपकी लाड़ली रानू की बेटी.....अपनी नातिन....
हा हा हा .......नानू बन गए हो....अब ......
बधाई हो........ . . . उसे मुझे बताना पड़ेगा.....कौन नानू.......
......

न.... कुछ न कहना ...

साथ हो तुम पर पास नहीं
दूर सही..पर उदास नहीं.....
.
.
.
तीस साला सफर की बधाई.......!
मुझे भी.......

न ........कुछ न कहना ...!
.
फिर निकल भागा फिसलकर एक और साल
मायरा की करते -करते देखभाल ......

.
.
समय को पंख लग गए,
ठहरा वक्त दौड़ पड़ा,
और अब नियति को रोकना
काल के बस में नहीं ......
.
घड़ियां बीत ही जाएंगी
कुछ दुःख और कुछ सुख की
इन्तजार करना पहले की तरह
मगर हाँ, चुप ही रहना .....
न..... कुछ न कहना .......

(वत्सल के पहले क्लिक के साथ)
-अर्चना

Wednesday, November 12, 2014

ये जिंदगी

यूं तो गुजरते -गुजरते गुजर ही जाती है जिन्दगी
पर जब गुजारनी हो तो नहीं गुजरती ये जिन्दगी..

बदलते -बदलते आखिर  कितना बदल गए हम
कि अपने जमाने से कोसों आगे निकल गयी ये जिन्दगी...

चलते-चलते ,चलते ही जाना है ,जाने कितनी दूर तलक
कि सांसों के घोड़ों पर सवार हो सफ़र पर निकल पड़ी ये जिन्दगी...

जाते-जाते अनगिनत दुआएं देकर जाने की ख्वाहिश है मेरी
कि खुदा के घर में भी दुआओं के सहारे बसर कर लेगी ये जिन्दगी....

मिटाते-मिटाते भी नामोंनिशां न मिटा पाएंगे वे मेरा
क्यों कि कतरा-कतरा बन फ़िजा में अब महकेगी ये जिन्दगी.....


Tuesday, November 11, 2014

अनवरत प्रवाहमान कहानी का बारहवाँ टुकड़ा

12-
सुबह स्कूल के लिए निकली तब बगल के मंदिर में दनादन घंटे पीटकर आरती निपटाई जा रही थी ,श्वान महोदय स्कूटर पर स्टंट करके आराम फरमा रहे थे 



 एक गौ माता गोबर करके निपटीं थी ,गोबर कोई उठा कर ले जा चुका था ,श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं .....
 मैंने जल्दबाजी में नियम तोड़ते हुए सड़क पार की ...
स्टॉप पर खड़े होने पर सामने चाय की गुमटी दिख रही है दो 16-17 साल के बच्चे सिगरेट पीते हुए चाय गटक रहे हैं ,पढ़ने आए हैं इंदौर में ऐसे दिख रहे हैं ,कान में हेडफोन ....मेरी नजर उन पर जा टीकी है बहुत गुस्सा आ रहा है मन कर रहा बुला कर पूछूं कहाँ से आए हो या जाकर दो तमाचे जड़ दू




.
.
.
समय खतम इन्तजार का ,स्कूल बस सामने आ खड़ी हुई है अंदर चढ़ने पर भी उन पर नजर है ,अब वे गुमटी वाले से अखबार लेकर अंदर उलटे हाथ का पन्ना पढ़ रहे हैं ...
बस चल दी .....मैं वहीं ..... जाने कितने बच्चे जानबूझकर अनजान बने रहते होंगे ...

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी .....

Sunday, November 2, 2014

तुम्हारे ख़्वाब .....

रोज सुबह उठकर
तुम्हारे ख़्वाब चुनती हूँ
पूजा के फूलों के साथ
झटकती हूँ, सँवारती हूँ
गूँथ लेने को
और गूँथ कर उन्हें
सजा लेती हूँ
मेरे माथे पे
मेरी आँखों की चमक
बढ़ जाती है
और
निखर जाता है
रूप मेरा...

कुछ ख्वाबों के रंग
खिले -खिले से होते हैं
और ये ख्वाब

भीनी सी खुश्बू लिए होते हैं
मुरझाते नहीं
सूखने पर भी

इनकी खुशबू 
महकाए रखती है फ़िजा को
जहाँ से गुजरती हूँ
मेरी मौजूदगी दर्ज हो जाती है
शाम होते -होते
आसमान तैयार होने लगता है 
तारों की टिमटिमाहट लेकर
ख्वाबों के बहाने
चाँद मिलने आता है
चुपके से सूखे ख्वाबों को 

चुरा ले जाता है..

मैं फ़िर
निकल पड़ती हूं
सुबह होते ही चुनने को
तुम्हारे ख़्वाब  .....





Thursday, October 30, 2014

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना -गोपालदास "नीरज" जी का एक गीत




जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 

- गोपालदास "नीरज"

Wednesday, October 29, 2014

ठुमक -ठुमक "मायरा" चलत

(बहुत कोशिश के बाद भी नानी की बेटी- "मायरा" के ब्लॉग पर प्लेअर नहीं लगे ... :-(





ठुमक -ठुमक "मायरा" चलत
नानी को नचाने -२

नानी आये पीछे-पीछे
मायरा भागे आगे...
नन्हे-नन्हे पैर हिले
छुन-छुन पायल बाजे....
ठुमक -ठुमक "मायरा" चलत
नानी को नचाने.....२

एक जगह टिकती नहीं
ये छोटी पिदुकली
लेटते ही पलटी मारे
देखते रहें सारे...
ठुमक -ठुमक "मायरा" चलत
नानी को नचाने.....२

नानी उसको गोद ले तो
चार बाल नोंच ले
कभी चश्मा खीच ले
और नाक भी दबोच ले
नानी से ही खिचड़ी खाए
और झूला झूले...
ठुमक -ठुमक मायरा चलत
नानी को नचाने.... २

Monday, October 27, 2014

कामायनी (भाग १) - चिंता

बहुत दिनों से मन था इसे रिकार्ड करने का ...कई प्रयास किए, मगर एक तो मेरी कम पुस्तक पढ़ने  की आदत और दूसरे इतनी बड़ी रचना ,नेट से  स्क्रीन पर देखते-देखते आंखें थक जाती ... .... हर बार अधूरा करके छोड़ देती लगता नहीं हो पायेगा
लेकिन इस बार जब दशहरे पर राँची गई ,तो बाज़ार में उस दूकान को देख मन माना नहीं जहाँ २० साल पहले जाया करती थी बच्चों के लिए कहानियों की किताबें लेने ... वत्सल और नेहा से बताया कि ये वही दूकान है तो हम तीनों अन्दर गए मुझे छोड़ दिया किताबों के स्टैण्ड के पास ...देखते -देखते नज़र पड़ी बोर्ड पर लिखा था - पुराना हिन्दी साहित्य ..... एक काउंटर अलग से था ...ऊपर में ...चढ़कर गई तो कई साहित्यकारों जिनके नाम सुने थे की किताबें नज़र आई , सामने ही थी - जयशंकर प्रसाद जी की "कामायनी"... बस खरीद ली और अब रिकार्ड किया पहले भाग -चिंता को ....
कैसा हुआ ये तो आप ही सुनकर बता पाएंगे ...और गलतियों के लिए माफ़ भी करेंगे ... सुझाव भी देंगे तो कोशिश करूंगी आगे के भाग को और अच्छे से कर पाउं ....
और प्रोत्साहन मिलेगा तो जल्द से जल्द पूरा करने की भी कोशिश रहेगी मेरी ...आप तो जानते ही हैं-"मायरा" में मन उलझा हुआ है मेरा .....

डाउनलोड करिए या सुनिए यहाँ -



और एक और प्लेअर पर यहाँ -

Sunday, October 19, 2014

मनवा न लागत तुम बिन

सुनिए - आदरणीय कैलाश शर्मा जी की एक रचना - उनके ब्लॉग आध्यात्मिक यात्रा से

कार्तिक की एक सुबह

23-
- आज जाना नहीं है?
-नहीं ..
-क्यों ?
- मन नहीं है ...
-हम्म!... पर मुझे तो जाना है न!,
-जानता हूँ... तुम्हारा जाना जरूरी है ...
-फिर ?...जाओ ..तुम...
-सुनो ...
-क्या ?
-तुम्हारे आने तक यहीं रूक नहीं सकता ?
-मगर क्यों ?
-तपना है मुझे भी ..... तुम्हारी तरह ,
झुलसना है धूप से ...तुम्हारी तरह ...
इस सूरज के आगे अड़े रहना चाहता हूँ
तुम्हारे लौटने तक खड़े रहना चाहता हूँ ......
- जाओ भी !!! ...सुबह होने को आई है ....
- ह्म्म! जाता हूँ ,जाता हूँ ...पर एक बार ...
- ह ह ह ह ....... :-)

अनवरत प्रवाहमान कहानी का एक टुकड़ा
-अर्चना

Monday, October 13, 2014

जीवन मैग -वेब पत्रिका से एक कहानी - दाह संस्कार

जीवन मैग साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में रुचि रखने वाले छात्रों का एक समूह है जिस पर से मैंने पढ़ी कहानी "दाह संस्कार " लिखा है अक्षय आकाश ने ....

फेसबुक पर आकाश कुमार ( इस कहानी के लेखक नहीं )का निमंत्रण मिला पत्रिका को पढ़ने का और जाना आकाश के बारे में .....
आप जानिये आकाश के बारे में पत्रिका पर
फिलहाल अक्षय आकाश की कहानी सुनिए -  

दाह संस्कार

अनवरत प्रवाहमान कहानी का एक टुकड़ा

22

...ये जल्दी उठने की आदत तुम्हारी थी ,मुझे लग गई ...
-तो ?अच्छी आदत है ,उठा करो ...
-हुंह !उठा करो  :P  .....बोल तो ऐसे रहे हो कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं
- ओह! हुआ क्या ? बताओ भी ...... :)
- न ,नहीं बताना ...
- प्लीज ....  बता भी दो ....रूको !रूको चाय लेकर आता हूँ फिर बताना
-चाय ?,बन भी गई ?
-हम्म !!!...
-कब ?
- न!...... ,पहले तुम बताओगी फिर मैं  .....
-अरे !!! ..... मैं तो ऐसे ही ......
- नहीं ...बताना पड़ेगा ....छुपाने का कोई प्रॉमिस नहीं हुआ था
-ओके !ओके! ... मैंने इसलिए कहा कि --जल्दी सोने की भी तो आदत थी नहीं तुम्हारी ..........और दिन में सोना मुझसे होता नहीं ........ अब उठकर अँधेरे में अकेले घूमने भी तो जाने का मन नहीं होता ...
-ओह!.... सुबह -सुबह उदासी !!! नो! ......खुश हो जाओ यार ! चलो मैं बताता हूँ -चाय कब बनाई ...
- हम्म! .....बताओ  कब ?.....बताओ जल्दी ......
.
.
.

- जब तुम सुबह का सपना देख रही थी .......
......
....
अनवरत प्रवाहमान कहानी का एक टुकड़ा ........
-अर्चना

Thursday, October 9, 2014

इक जरा इन्तजार



सब कुछ सत्य है !

मैंने देखा है मॄत्यु को
वो आई, पर
मुझे साथ न ले गई
वो फिर आयेगी,

जानती हूँ
और इस बार कोई बहाना
न कर पायेगी
इस बार तैयार हूँ मैं
उससे भी पहले से ....
-अर्चना

Wednesday, October 8, 2014

अपनी भाषा

एअर इंडिया की ऊडान में अचानक समय परिवर्तन हो गया था साढे़ तीन बजे के बदले डेढ़ बजे निकलना पड़ा .... हड़बड़ी में भागना पड़ा और....  ..."अदा जी" को शुक्रिया और विदा कहने का मौका भी नहीं मिल पाया.....

दिल्ली में रूकना था ढाई घंटे ..दिल्ली से भी फोन ट्राय किया....अफ़सोस ! नहीं मिला ....

अकेले लम्बी दूरी की यात्रा करो तो दॄष्टि चारों ओर आते -जाते लोगों पर लगी ही रहती है.... मैं भी राँची से इन्दौर आते हुए यही करती रही ....थोड़ा घूम फिर कर बैठ गई एक कुर्सी पर ... बाजू में एक कुर्सी छोड़कर एक लड़की बैठी थी ...कुछ ही देर में उसके कुछ साथी आये तो वो .बेग वही छोड़कर.पीछे की तरफ़ चली गई बतियाने ,अंग्रेजी में ही बातें करते रहे वे हिंदी का एकाध शब्द  बोले ......५-६ साथी थे वे शायद इन्दौर में पढ़ाई कर रहे थे और छुट्टियाँ खतम होने पर लौट रहे थे घरों से ....


मेरे बाजू वाली कुर्सी पर मैंने भी अपना झोला रखा हुआ था, थोड़ी देर में एक विदेशी परिवार जिसमें पति-पत्नि के अलावा तीन छोटे बच्चे लगभग ६वर्ष की बड़ी बेटी ,४ वर्ष का बेटा और लगभग ३ वर्ष की छोटी बच्ची  थी ,वहाँ आया ....पत्नि की नज़रें खाली कुर्सी  खोज रही थी... मैंने अंदाजा लगते ही अपना झोला उठाकर नीचे रख लिया वे मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठ गईं और फोन में व्यस्त हो गईं, पति पास ही बेग रखकर टहलने लगे और बच्चे इधर-उधर खेल-घूम कर खुद का मनोरंजन करने लगे.....थोड़ी देर बाद बड़ी बेटी माँ के पास आकर बैठने की कोशिश करने लगी ... माँ ने बाजू की बैग वाली कुर्सी की ओर देखते हुए मुझसे पूछा- आप जानती हैं, ये सामान किसका है ?(स्पष्ट हिंदी में )....
चुँकि मैं जानती थी, मैंने पीछे बैठी लड़की से कहा- आपका सामान हटा लीजिए... वो आई और सामान हटा लिया , बच्ची खुश होते हुए बैठ गई माँ के पास .....
मुझे उन्हें हिंदी बोलते हुए सुनना अच्छा लगा ... मैंने पूछा- कहाँ जा रहे हैं आप ? जबाब मिला - अमेरिका ...

तुरन्त ही विमान में जाने का आदेश मिला और हम लाईन में लग अलग हो गए ....
इन्दौर में उतरने पर वे बाहर मिली ...उनके पास से गुजरते हुए रहा नहीं गया ...धन्यवाद कहने का मन था ,
मैंने कहा- बहुत अच्छा लगा आपको हिंदी बोलते हुए सुनना ... उनके चेहरे पर लम्बी सी मुस्कुराहट आ गई...खुश होकर कहा - Oh! ...Thankyou...Thankyou .....
और Bye कहकर मैं चल दी.....

Tuesday, October 7, 2014

चमक

चमक






कल फिर मेरी सहयात्री ने मुझसे पूछा -
दूसरी शादी नहीं की?
हँस दी मैं हमेशा की तरह ......
आज दुधिया चाँदनी है
ये चाँद से कहो न थोड़ा हटे, छुपे....
तुम्हारे तो पास है वो, साथ है वो
कई दिनों से, कई सालों से...
मान लेगा तुम्हारी बात शायद ..
इतनी चाँदनी में तो
भीगी कोरे भी चमक कर
दिख जाती है ...
हँसने पर भी तो
भीग जाती है न कोरें.....
- अर्चना

फेसबुकी कतरन - प्रेम

तुम्हारे पास दिल है,
मेरे पास भी दिल है...

तुम मुझसे प्रेम करते हो,
मैं तुमसे प्रेम नहीं करती...

तुम उग्र हो जाते हो,
मैं धैर्य रखती हूँ ...

तुम्हारा अपमान होता है,
मेरा भी अपमान होता है....

क्या दिल सिर्फ़ तुम्हारे पास है?
या दिल, मेरे पास भी है ? ...
-अर्चना

Sunday, October 5, 2014

ये रात


ये रात
शुरू कब होती है
पता नहीं चलता ....
भागादौड़ी
के चक्कर में

और दिन ...
रात के आंचल में
दुबक के छुपा
रहता है
....
सुबह
पता चलता है कि
आँखों ही आँखों में
गुज़र गई रात ये .......
-अर्चना

Friday, September 26, 2014

अनवरत प्रवाहमान कहानी का अठारहवाँ टुकड़ा


18
कभी -कभी कोई दिन बहुत दुखी कर ही जाता है , कितना भी चाहो खुश रहना उदासी अपनी जगह बना ही लेती है .....
तुम्हारा मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर उसकी लकीरों को देखना कभी भूल नहीं पाती हूं ...जब-जब भी सफ़ाई के दौरान पुरानी पड़ी किताबों से हस्तरेखा वाली किताब जिस पर तुम्हारा नाम पहले पन्ने पर लिखा है, निकलती है, फ़िर अपनी हथेलियां देख लेती हूं, जाने क्या पढते थे इनमें और कुछ पूछती थी तो चुप हो जाया करते थे... टाल देते थे बस यूं ही कहते हुए


..... लेकिन एक बात हमेशा कहते - ये तुम्हारी लाईन इतनी कटी हुई है..और  नई लाईन फ़िर से शुरू हुई बिलकुल अलग से ....
..मुझे तब कुछ समझ नहीं आता ...लेकिन अब देखने पर लगता है दोनों लाईनों के बीच खाई भी तो कितनी गहरी है ...... जाने क्या लिखा होता है हाथों की लकीरों में और माथे पे ...सबकी ...:-(
 ...
मेरे डेस्क्टॉप पर  पॉडकास्ट चालू है - पद्म सिंह जी की लिखी रचना का ---

तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वाही
नयनों में निर्झर पानी रे
..





"अनवरत प्रवाहमान कहानी का एक टुकड़ा"

फ़ेसबुक से कतरे ...

चाँद अब रहता है देर तक सुबह होने के बाद भी
कहीं सूरज की तबियत तो खराब नहीं जाड़े में ....

या कि चाँद पर लोगों के जमीन ले लेने से
चाँद को जगह लेनी पड़ी सूरज से भाड़े मे...
-अर्चना


सोचा था,
आज मैं
चुप ही रहूंगी
कुछ न कहूंगी
पर तुम हो न!
बस! सुनने का
ठेका लिए बैठे हो
कभी तो दो शब्द बोलो
कि मैं सुनूँ "प्रेम"....

-अर्चना

नवरात्रि




माँ ने सिखाया 
प्रेम करो सबसे
मिलके रहो ..

देखने तुम्हें
हर वर्ष आउंगी
खुश रहना
... 

आत्मसम्मान
  विश्वास और आस्था
नवरात्रि में 
 
  नई उमंग... 
नीरस जीवन में 
भर देती माँ...

जय माता की
कह देने भर से
धुलेंगे पाप....

जय माँ अम्बे
अधर्म का नाश हो
तेरी कॄपा से..

Tuesday, September 23, 2014

अनजान चेहरा

ये बाबा मिले थे पिछले साल वैष्णो देवी की पहाड़ी चढ़ते समय.... जब थोड़ा सुस्ताने के लिए मैं वत्सल और पल्लवी रूके एक शेड में तो ये आकर कहने लगे पैर की मालिश करवा लीजिए ...दर्द कम हो जायेगा ..इनकी उम्र और इनके काम को देखकर दर्द तो वैसे ही दूर हो गया था.....वे जब गुहार लगा रहे थे तब वत्सल ने फोटो निकालने का पूछा ...खडॆ होकर पोज़ दिया .... वे सोच रहे थे काम मिल जायेगा .... तब ये भाव थे चेहरे पर ...
 फ़िर इन्हें पचास रूपये देकर कहा कि एक फोटो और लेना है ...मालिश नहीं करवानी ..... तो ये भाव आये इनके चेहरे पर ....
 आज न जाने कहाँ होंगे ....दुबारा मुलाकात भी होगी या नहीं, नहीं मालूम,.... लेकिन इस उम्र में इतनी ऊंचाई पर दिल जीत ले गए ये हमारा ....
दो पल ही सही इनके चेहरे पर मुस्कान लाने में सफ़ल हुआ वत्सल ...अच्छा लगा ...
काश कि इनका नाम भी जान लिया होता .....

Monday, September 22, 2014

जीवन-मृत्यु

जीवन -मृत्यु  

किसी अपने के 
सदा के लिए चले जाने पर
वक्त ठहर जाता है
पर .... 
ठहरना वक्त का 
कभी अच्छा नहीं होता 
खो जाता है इसमें 
एक नन्हा सा बचपन 
बचा लो उसे 
अनचाहे दर्द से
कि साँसों का चलना ही तो
जिन्दगी नहीं  ......

Thursday, September 18, 2014

कलाकारी

न जाने कितनी चीजें सीखी लड़की होने के कारण ...
ये दो फ्रेम शादी के बाद मेरे साथ ही ससुराल आई थी ....मैं तो इधर-उधर होती रही ...मगर ये आज भी उसी जगह टंगी हैं जहाँ नवम्बर 1984 में मैंने टांगी थी ......
.
.
जब भी  यहाँ आती हूँ .... बहुत कुछ याद दिलाती हैं .......

Tuesday, September 16, 2014

पोर-पोर पीर बोई ...

सुनिए एक विरह गीत ...गिरिश बिल्लोरे "मुकुल" जी का लिखा हुआ,जिसे आप पढ़ सकते हैं- उनके ब्लॉग इश्क-प्रीत-लव  पर