पिछ्ले दिनों मुझे होस्टल में जाकर रहना पडा था।आठ सालों मे पहला मौका था जब मुझे फ़िर से होस्टल काकार्य सम्भालना पडा ।(तीन वर्षों तक मैने यह कार्य किया था) । वे बच्चे जो पहली कक्षा मे थे अब तक १२ वींमे आ गये थे ।उनके व्यवहार , रहन-सहन,बातचीत,मे बहुत परिवर्तन आ गया था ,फ़िर भी उनमे से अधिकतरको वो सब बातें याद थी जो मैने उन्हे तब सीखाई थी। उनकी उम्र के ११ साल इसी होस्टल में बीत गये थे।आज मैने "बेजी" जी ( लिन्क देने में असमर्थ ) की पोस्ट पढी---" बच्चे के व्यक्तित्व विकास में माता-पिता का योगदान"------औरउसके बाद जो कुछ मेरे मन मे आया वही शब्दों में------
आजकल बच्चों के लिए हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं,
और हालातों से लडते हुए वे अपना बचपन खोते जा रहे हैं।
अपने को सम्भाल पाने के पहले ही ,
पढने के लिए घर से बाहर भेज दिए जाते हैं।
इसीलिए माँ तो क्या ,
किसी अपने का भी प्यार नहीं पाते हैं ।
घर से बाहर निकलते ही ,
रिश्ते-नाते सब छूट जाते हैं।
और हर मुसीबत मे वे ,
अपने-आप को अकेला पाते हैं।
ऐसा नहीं है कि वे कुछ करना नही चाहते हैं,
ये हमारी गलती है कि हम उन्हें समझ नही पाते हैं ।
अब उन्हें कोई बाजु के अंकल या दादाजी नहीं मिलते हैं,
जो धूप में खेलेने पर उन्हें टोक सके ।
ना कोई अपना है ,
जो घर पर देर से आने पर उन्हे रोक सके ।
माता -पिता भी सिर्फ़ फ़ोन पर---कैसा है?,
पूछकर फ़ार्मेलिटी निभाते हैं ।
और बच्चे किसी "नुक्कड" या "कैफ़े" पर,
अपना अमूल्य समय बिताते हैं ।
आओ अपने पास के एक बच्चे को बचाएँ,
उसे अच्छे और बुरे का भेद समझाएँ ।
उसकी सोच का दायरा बढाएँ,
जिससे वे अपना अमूल्य समय न गवाँए ।
मुझे नहीं लगता वो किसी की सुनता ही नहीं होगा,
शायद उसे अब कोई समझाता ही नहीं होगा ।
हर बडा जब राह चलते उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास करायेगा ,
तो बच्चा शायद कभी गलत रास्ते पर नहीं जायेगा ।
न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे, न ही किसी कविता के, और न किसी कहानी या लेख को मै जानती, बस जब भी और जो भी दिल मे आता है, लिख देती हूँ "मेरे मन की"
Wednesday, April 29, 2009
Thursday, April 16, 2009
असमर्थता
इन दिनों कुछ जरुरी काम आ जाने से थोडी व्यस्तता बढ़ गई है इसलिए लिखने में असमर्थ हूँ । समय मिलते ही लौटती हूँ । जाना है , बाकी बाद में ।
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