(ये कोई कविता नहीं है बस बात की है मैंने और दिलीप ने)...
अक्सर ऐसा होता है कि
जिंदगी आपको इतना पत्थर कर देती है कि
सबसे दूर जाने का मन करने लगता है
पर कुछ रिश्ते कभी नहीं टूटते
जैसे - तुमसे मेरा....
हमारा रिश्ता ही ऐसा है कि
तुम मुझसे दूर नहीं जा सकते
और
मैं तुम्हें जाने नहीं दे सकती...
बिछड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता..
ये तुम भी जानते हो और मैं भी..
बाँध कर रखा है एक डोर से..
जो दिखाई नहीं देती....
यादों के मौसम की गुनगुनी धूप के बीच
तसवीर हाथ में ले
मेरा हौले से पुकारना
ह्म्म्म.. कह कर तुम्हारा आना
और मेरी बन्द पलकों की नमीं में ही छुप जाना
धीमे से मुस्कुराना
मुझसे मिलना,और
मुझे तनहा छोड़
चुपके से गुम हो जाना
रोज़ मिलकर बिछड़ जाना
अच्छी आदत नहीं........
(ये मैं पहले 30 दिसंबर 2010 को पोस्ट कर चुकी हूं आज नये सिरे से करना पड़ रहा है वहाँ प्लेअर नही चलने की वजह से )
ब्लॉग जगत में आभासी रिश्तों के बारे में बहुत कुछ कहा गया ...मैने भी बनाए
रिश्ते यहाँ...जो सहयोग मुझे मिला उसके लिए आभारी हूँ सभी की...मुझे लगता
ही नहीं कि हम लोग मिले नहीं हैं..रिश्तों के बारे में बातें करते हुए
.मैने लिखा कुछ इस तरह ---
चाचा, पिता,बेटे -बेटी और मित्र मिले हैं मुझको घर -घर
साहस मेरा और बढ़ेगा,नहीं रहूँगी अब मैं डर -डर
सूख चुके हैं आँसू मेरे ,जो बह रहे थे अब तक झर -झर
उफ़न चुका गम सारा बाहर,भर चुके सारे नदिया निर्झर
मर चुके कभी अरमान मेरे जो,जी उठेंगे अब वो जी भर
फ़ूल उगेंगे हर डाली पर, हो चुकी सब डाली अब तर
छिन चुका था मेरा सब-कुछ,भटक रहे थे अब तक दर-दर
सुर सरिता की सहज धार में,अब पाया है स्नेह भर-भर
परबत-समतल एक हो गए ,मैं जा पहूँची अभी समन्दर
चाह मुझे सच्चे मोती की ,लेना चाहूँ सब कुछ धर-धर
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" जी नें सुधार करके मेरी भावनाओंको शब्द दिए और उसका नतीजा निकला ये गीत---
नित नाते संबल देते हैं
क्यों कर जियूं कहो मैं डर-डर
सूख चुके हैं आँसू भी मेरे
जो बहते थे अब तक झर-झर
उफ़न चुका गम सारा बाहर
शुष्क नहीं नदिया या निर्झर
प्राण हीन अरमान मेरे प्रिय
जी लेंगे कल को अब जी भर
रिमझिम ऐसे बरसे बादल
हरियाये तुलसी वन हर घर
छिना हुआ सब मिला मुझे ही
दिया धैर्य ने खुद ही आकर
सुर सरिता की सहज धार ने
अब तो पाया है स्नेह मेह भर
परबत-समतल एक हो गए
जा पहुंचा मन तल के अन्दर
चाह मुझे सच्चे मोती की
पाना चाहूं सहज चीन्ह कर
किस्मत की लकीर किताबों में नहीं होती लिखी होती है सिर्फ़ हाथों में और हाथ करते हैं विश्वास मेहनत पर खुद की लकीरों को नहीं मानते करते हैं दिन रात काम दिलाते हैं मुकाम तुम्हें और मुझे तुम और मैं और फ़िर वही बारिश की शाम उठा लेते हैं एक -एक जाम अपनी अपनी किस्मत के नाम और खीच देते हैं लकीर अपने और अपनों के बीच उछालकर एक -दूसरे पर कीच ...... -अर्चना