Thursday, December 27, 2012

शाश्वत प्रेम

 आज आशीष राय जी के ब्लॉग "युग दृष्टि" से एक कविता -- शाश्वत प्रेम

आशीष जी अपनी कविता के बारें में कहते हैं---
"प्रेम की परिभाषा के बारे में कुछ कहना मेरे जिह्वा के वश की बात नहीं है ,. सांसारिक प्रेम से इतर शाश्वत प्रेम की परिकल्पना, जो शायद सृष्टि के संचालक की प्रकृति के प्रति प्रेम की द्योतक है । ये कविता  इसी शाश्वत प्रेम की तरफ इंगित करने की मेरी कोशिश मात्र है"---


Tuesday, December 25, 2012

एक थी दादी

संजय व्यास जी की एक रचना (मैंने इसे कहानी कह दिया है लेकिन है रचना )सुनिये -
"चारपाई पर बुढ़िया " 




इसे पढ़ सकते हैं संजय व्यास नामक ब्लॉग पर

लेकिन इसके साथ ये भी बताना चाहती हूँ कि जब मैंने ये रचना पढ़ी तो मन हो गया रिकार्ड करने का तो हमेशा की तरह रिकार्डिंग करके अनुमति के लिये भेज दिया संजय जी का मेल आई डी खोज कर और उनका जबाब मिला ये ...

शुक्रिया अर्चना जी.बहुत आभार आपका.आपने मेरी इस छोटी सी रचना को भरपूर मान दिया है.कहानी तो इसे क्या कहूं,बस रचना ही मान लें.आप इसे लिंक कर लें.मुझे ख़ुशी होगी.मैं स्वयं रेडियो में पिछले १८ बरस से नौकरी कर रहा हूँ,इसलिए कह सकता हूँ कि आपने इसे अपनी आवाज़ देकर इस रचना को गरिमा प्रदान कर दी है.
 अब मैंने ये तो सोचा ही नहीं था कि ये रेडियो में काम करते होंगें ... :-)
तो अपनी सारी गलतियों के लिये माफ़ी माँग लेती हूँ ...और इस कहानी की अनुमति देने के लिए भार भी करती हूँ संजय व्यास जी का ...

Friday, December 21, 2012

‘पंकिल’ - मेरे बाबूजी...

हिमांशु कुमार पाण्डेय जी के ब्लॉग सच्चा शरणम् से ठाकुर रविन्द्रनाथ टैगोर रचित गीतांजली के एक गीत का भावानुवाद जो किया है उनके बाबूजी यानि श्री प्रेमनारायण पाण्डेय "पंकिल" जी ने

और गीत है ये --
The song that I came to sing remains
unsung to this day.

I have spent my days in stringing and
in unstringing my istrument.

The time has not come true, the words have
not been rightly set; only there is the
agony of wishing in my heart.

The blossom has not opened; only the
wind is sighing by.

I have not seen his face, nor have
I listened to his voice; only I have
heard his gentle footsteps from the
road before my house.

The live long day has passed in spreading
his seat on the floor; but the lamp
has not been lit and I can not ask
him into my house.

I live in the hope of meeting with him;
but this meeting is not yet. (Geetanjali - R.N.Tagore)




इस भावानुवाद को पढें- सच्चा शरणम् पर

Thursday, December 20, 2012

काँची...

 दिल्ली की घटना से स्तब्ध मैं और मेरे सहयोगी आपस में बात कर रहे थे|     बात करते -करते ही अचानक मैंने कहा कि महिलाओं की भी क्या जिंदगी है, जितनी महिलाएं उतनी ही कहानियाँ ...और याद आई मुझे अपने यहाँ काम करने वाली दीदी की .....बोल पड़ी, "वो काँची ही थी अपने यहाँ..."
"वो मर गई..."बीच में ही बोल पड़े मेरे मित्र....
और मैं भौंचक्की सी देखती रह गई, "अरे!! कैसे ? कब ? मुझे तो पता भी नहीं चला?" प्रश्नों की झड़ी लगा दी मैंने...
"हाँ ,पिछले महिने ही २७-२८ तारीख को" बताया मेरे मित्र ने.."आपको नहीं पता?" पूछते हुए..

"नहीं तो ...किसी ने बताया भी नहीं" कहते हुए मेरी आवाज दब सी गई ...शायद ऐसी खबरों से मैं व्यथित हो जाती हूँ इसीलिए मित्रों ने मेरे सामने जिक्र नहीं किया था पहले...

याद आई काँची और उसके साथ ही उसकी कहानी...
दुबली पतली .सुन्दर नाकनक्श वाली गोरी सी लड़की ....दो बच्चे थे उसके ...उम्र भी कम लगती थी| यहाँ काम की तलाश करते-करते पहुँच गई थी स्कूल में मेरी ..क्लास की सफ़ाई करती थी और नर्सरी के बच्चों की देखभाल के लिये मदद करती थी ...
एक दिन खेल के मैदान में मिल गई जब फ़्री थी , एक कमरा मिला हुआ था उसे ,उस दिन शायद बच्चा बीमार था उसका तो उसे लेकर खड़ी थी गोद में ..
मैंने तभी पूछा था, "तुम्हारा बच्चा है?"  
"हाँ" कहते हुए बताया था,  'दो हैं मेरे बच्चे एक लड़का एक लड़की" ...बताते बताते वो स्कूल के बच्चों को खेलते हुए देख रही थी ..उसका दूसरा बच्चा एक बेटी थी जो बड़ी थी पास के ही स्कूल में जाती  थी ... तभी आर टी ई के बारे में सुना था उसने कहीं से ,मुझसे पूछने लगी,  "मेडम क्या मेरे बच्चे को भी स्कूल में भरती सकती हूं? कहाँ से मिलेगा फ़ार्म ? कौनसे -कौनसे कागज लगेंगे?"

"एक के तो ३०० रूपये लगते हैं मुझे अगर इसका इसमें हो जाएगा तो मेरे दोनों बच्चों को स्कूल भेज दूंगी।" ये कहते हुए उसकी आँखों मे चमक देखी थी मैंने...
मैंने कहा कि जन्म प्रमाण पत्र ,राशन कार्ड,माता -पिता का परिचय पत्र....
उसने कहा,  "ये नहीं हुए तो ?"मैंने कहा, "फ़िर तो मुश्किल होगा ,तुम्हें ये कागज बनवाने पड़ेंगे"
"राशन कार्ड तो है मेरा पर ...."कहते हुए रुक गई वो ...
मैंने पूछा,  "पर क्या? घर पर है,तो ले आओ या मंगवा लो" ...फ़िर पूछा,  "इनके पापा क्या करते हैं?"
वो अनसुना कर आगे बोलने लगी "ला तो नहीं सकती मैं ...अब दूबारा घर नहीं जा सकती"
मेरी जिज्ञासा बढ़ी, "पूछा क्यों नहीं जा सकती ?"
और फ़िर उसने बताया, "मैंने और इनके पापा ने भाग कर शादी कर ली थी "लव मेरिज" ...मंदिर में ...फ़िर मैं माँ के घर नहीं गई..कुछ दिन उसने बहुत अच्छे से रखा फ़िर दारू पीने लगा और मुझ पर शक करने लगा ,घर में बन्द करके जाता था किसी से बात नहीं करने देता था|मेडम जी बहुत सहा, मैंने सोचा बच्चे हो जाएंगे तो इसका शक चला जाएगा ..बच्चे हुए तो रखता तो अच्छा ही था ,मगर पैसे की कमी रहने लगी फ़िर गुस्से में बहुत मारता था ...बाकि तो कुछ नहीं पर शक इतना कि आजू-बाजू भी कोई मदद नहीं करता था|" मैं परेशान हो जाती थी| एक दिन कह दिया, "मैं चली जाउंगी बच्चों को लेकर|" तो बोला,  "चली जा". बस यही बात बहुत बुरी लगी मेडम जी ...मैं उसके साथ अपना घर बार माँ-बाप सब छोड़ कर आई थी ...मार खाते हुए भी रहती थी क्यों कि उसे प्यार करती थी ..पर उसने कैसे कह दिया चली जा ....मैं एक दिन निकल आई घर से उसे बिना बताए ...बच्चों को लेकर ..

कुछ दिन एक आश्रम में रही पर वहाँ एक साल से ज्यादा नहीं रखते .. वहाँ की मेडम ने यहाँ काम दिलवा दिया ...
मैं सोच रही थी कितनी हिम्मत वाली है ...

फ़िर छुट्टीयों के बाद पता चला वो किसी के साथ चली गई है .......बच्चों सहित ...शायद शादी भी कर ले ...
लेकिन फ़िर एक बार स्कूल में नज़र आने लगी शायद उसके बच्चों को साथ नहीं रख रहा था जो उससे शादी करने वाला था....लेकिन फ़िर ५-६ माह बाद चली गई शायद उसे काम से निकाल दिया गया था...उसके साथ ही एक और परिवार को भी निकाला  गया सुना इसे लेकर दोनों पति-पत्नि झगड़ते थे ...
फ़िर अचानक मुझे ये पता चला कि उसकी मौत हो गई ....कैसे ? का जबाब मिला बीमार हो गई थी ,हिमोग्लोबिन कम हो गया था बहुत,  शायद कोई इन्फ़ेक्शन भी .....
"और उसके बच्चे? वे कहाँ गए?".
"शायद बाद मे उसके भाई के पास चली गई थी ...वो ही ले गया बच्चों को"
और खतम हो गई काँची की कहानी ...जब भी याद आती है तो मन में एक बात हमेशा आती है- कि नाम भी पाया तो "काँची"
लेकिन क्या मालूम कि उसकी बेटी जब बड़ी होगी तो उसकी कहानी क्या होगी........
पर मन कहता है कि -काश! तुम्हारी  बेटी की कहानी सुखांत हो काँची.........

 

Tuesday, December 18, 2012

एक कहानी दो सहेलियों की

आज वाणी गीत जी के ब्लॉग ज्ञानवाणी से एक कहानी दो सहेलियों की
शीर्षक है - "रूठना कोई खेल नहीं"

Tuesday, December 11, 2012

दैनिक प्रार्थना...


दैनिक प्रार्थना .... 
उच्चारण की कुछ गलतियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ,
(भविष्य में सुधार करने पर फ़िर इस प्लेयर को बदला जा सकेगा)

हरि: ऊँ !     हरि: ऊँ !!   हरि: ऊँ !!!  
ब्रम्हानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदॄशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तं नमामि॥

कर्पूरगौरं करूणावतारं संसारसारं भुअजगेन्द्रहारं,
सदावसन्तं ह्रदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि॥

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांगं, सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायक चारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दमं कॄष्णं वन्दे जगद् गुरूम्॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लन्घयते गिरिम्।
यत्कॄपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥


ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन् भुंजीथा: मा गॄध: कस्यस्विद्धनम्॥


प्रात: स्मरामि हॄदि संस्फ़ुरदात्मतत्वं
सत् चित् सुखं परमहंससगतिं तुरीयम्।
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यं
यद् ब्रह्म् निष्कलमहं न च भूतसंघ:॥

प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण|
यं नेति नेति वचनैर्निगमा अवोचं
स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम्
 

प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं
पूर्णं सनातनपदं पुरूषोत्तमाख्यम्|
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ
रज्ज्वां भुजंगम इव प्रतिभासितं वै
 
(पूरे श्लोक तो नहीं लिख पाई हू,लेकिन लेकिन अनूप शुक्ला जी के कहने पर कुछ को टाईप किया है ,भविष्य में एडिट करके पूरे लिख देने की कोशिश रहेगी)








Sunday, December 9, 2012

पुराने रिश्ते -पुराने लोग

पता नहीं ये योग है या संयोग -- आज प्रो. सरोजकुमार जी के यहाँ जाना हुआ माँ को लेकर( कल वादा जो कर लिया था)...फ़िर वे और माँ बीते दिन याद करते रहे ,और मैं सुनती रही........याद करते-करते बताया कि केमेस्ट्री पढ़ने आते थे पिताजी के पास ......तभी उन्होंने माँ से पूछा मिसेस देसाई से कभी बात हुई या नहीं आपकी ? एक ही आँगन था आपका...माँ ने बताया कि एक बार हुई करीब २०-२२ साल पहले ..और अचानक उन्होंने मिसेस देसाई को फोन लगाया और उनसे कहा मेरे यहाँ कौन आया है ,पता है?आपकी पडोसी...फ़िर माँ से बात करवाई ,उन्होंने फोन नम्बर देने को कहा और माँ ने फोन मुझे पकड़ा दिया...मैंने नमस्कार कहा और वे बोली तुम तो पैदा भी नहीं हुई थी तब .....मैं कल उसी डॉ. के यहाँ आकर मिलती हूं वो मेरा भी डॉ. है मेरे बेटे के साथ पढ़ा है ....अब कल उनसे मुलाकात तय हुयी है ....:-) ये पुराने लोग भी कितने अजीब से रिश्तों में बँधे होते हैं.....
 ये चित्र १९ जनवरी २०१२ का है जब मेरे बच्चों को शुभाशीष देने वे आये थे चित्र में माँ और मेरे साथ प्रो. सरोजकुमार जी 
इसी के साथ मुझे एक और वाकया याद आ गया-- बात तबकी है जब मेरी शादी के बाद मैं और सुनिल राँची आने से पुर्व अपने रिश्तेदारों के घर मिलने गये थे ,मेरी बड़ी ननद जी के घर भी जाना तय हुआ था,जो "भंडारा"(महाराष्ट्र) में  रहती थीं। नये लोग ,नये शहर और नई भाषा का सामना करते -करते बहुत घबराहट सी होने लगी थी ,माँ का घर छोड़े ८ दिन होने आये थे। नागपूर से भंडारा बस से गये थे ,जैसे ही हम भंडारा उतरे मुझे कुछ जाना पहचाना सा लगने लगा ,समझ नहीं आ रहा था नाम सुना सुना क्यों लग रहा है ...खाना खाकर हम बैठे ही थे और मेरे दिमाग में विचार खलबली मचा ही रहे थे कि याद आया मैने ये एक पोस्ट कार्ड पर एड्रेस में पढ़ा है -
फ्राम- 
पी. डी. चन्दवासकर 
खामतलाव,गुप्ते का वाड़ा 
भंडारा(महाराष्ट्र)
और याद आते ही मुझसे रहा नहीं गया , ननद जी से पूछा -यहाँ कोई गुप्ते का वाड़ा है क्या ?
जबाब मिला- हाँ,पास ही है।
मैंने पूछा- क्या वहाँ जा सकते हैं?
उन्होंने पूछा - क्यो? कोई जान-पहचान वाला रहता है?
ह्म्म्म, हमारे यहाँ हर साल दिवाली पर एक पोस्ट-कार्ड आता है, दीपावली और नये वर्ष की शुभकामनाओं का...उस पर ये एड्रेस रहता है, और मुझे भंडारा नाम से ये ही याद आया ...
मेरे बताने पर वे मुझे वहाँ लेकर गई,एक घर पर पी. डी. चंदवासकर की नामपट्ट देकर मैंने द्वार पर दस्तक दी...एक  महिला ने द्वार खोला,मैंने कहा -गुप्ते जी से मिलना है,उन्हें बुला दीजिये..
वो महिला अन्दर चली गई ,थोड़ी देर बाद मेरे पिता की उम्र के एक व्यक्ति बाहर आये बोले - मैं गुप्ते ..
मैंने चरण छुए ,शीर्वाद देते हुए वे बोले मैंने तुमको  पहचाना नहीं...
मैंने कहा- मैं खरगोन के बी. एल. पाठक वकील साहब की बेटी अर्चना...
और उनके चेहरे पर जो खुशी देखी बयाँ नहीं कर सकती...उन्होंने बताया कि-" मैं और तुम्हारे पिताजी तुम्हारे जन्म से भी पहले इन्दौर में एक ही कॉलेज में लेक्चरर थे...बाद में उसने वकालात कर ली और खरगोन चला गया ,मैं भी कुछ सालों बाद अपने घर आ गया तबसे यहीं हूँ ,वो तो बहुत व्यस्त हो गया लेकिन मैं उसे भुला नहीं पाता हू....
...और आपके कार्ड का इन्तजार हम करते हैं -मैंने जोड़ा ..और बताया कि किस तरह यहाआई ..
उन्होंने मुझे नेग देते हुए कहा ये भी तेरा ही घर है  ....
जब वापस घर लौटी और पिताजी को बताया तो उनके चेहरे के भाव भी बता रहे थे जैसे वे खुद मिल लिये हो अपने दोस्त से ...
अब न पिताजी रहे न उनके दोस्त चंदवासकर अंकल....लेकिन मुझे दोनों याद आ ही जाते हैं... 
चाहती हूबच्चों को भी यादों में कुछ ऐसा ही दे जाएँ हम....


Saturday, December 8, 2012

खुशनुमा मौसम...

                                               

फ़िर सुहाना मौसम आया है
हर ओर बहुत खूबसूरत नजारा है
खुश्बू से मैं जान पाई हूँ
इस मौसम को महसूस पाई हूँ
तुम्हारा साथ था तो खिड़की के बाहर दिख जाता था
या सारा मौसम खुशबू समेत बाँहों मे सिमट आता था
अब उस खिड़की में झीना परदा पड़ा है
कुछ दिखता भी है तो बस धुंधला सा है
ये धुंधलाहट आँखों में है या बाहर
कौन बतायेगा मुझे
क्या आओगे फ़िर
या मुझे आना होगा
कोई राह तो सूझे...

Wednesday, December 5, 2012

फ़ेरे...

इस गीत के साथ देखिये बेटी पल्लवी की शादी के फोटो की स्लाईड--




और एक गीत मेरी पसन्द का --...तेरा मेरा साथ रहे...

Tuesday, December 4, 2012

मीठी याद - स्मृतियों के झरोंखे से

 कई साल बीत गए,कभी सोचा नहीं था कि ये कविता मेरे हिस्से आएगी...पर जो भी मधुर एहसास होते हैं, वे स्मृतियों में जिंदा रहते हैं हमेशा... और ये तो मीठी बोली भी है ...जब पहली बार आसनसोल गई तो कामवाली बाई बंगालीभाषी  थी ,हिंदी बिलकुल भी बोल नहीं पाती थी और मैं बंगाली मुश्किल से समझती थी और बोलना तो और भी मुश्किल ..जब हम एक-दूसरे को अपनी बात समझाते थे तो उसका कहा एक वाक्य आज भी याद आता है --- थेके थेके या थाके थाके  शिके जाबो....जैसा कुछ कहा करती थी वो मुझसे ........

मृदुला प्रधान जी के ब्लॉग से एक कविता पढ़कर रिकार्ड करने की कोशिश की है ,मैं बंगला जानती तो नहीं पर करीब २० साल पहले कुछ समय के लिए बंगला मकान मालिक के घर में रहने का सौभाग्य मिला था,तो कुछ स्मृति के आधार पर ही किया है,शायद ठीक हुआ हो...

Sunday, December 2, 2012

रिश्तों की डोर...


रिश्तों की डोर
कसकर बाँधो
या बाँधकर कसो
दोनों वक्त टूटने का डर है...
और यही टूटने का डर
रिश्तों को कस कर बाँधे रखता है
और बाँध कर कसे रखता है...
पर कैसे?
यही सवाल हरदम...

अब इसे सुनिये मेरी आवाज में एक नये प्रयोग के साथ ...