Tuesday, November 25, 2014

पहली सालगिरह

प्रिय सनी
"....."
पिछले साल इसी दिन पत्र लिखा .... एक तरफा पत्र....
बारी मेरी है,तो थोड़ा न थोड़ा लिखना ही पड़ेगा वादे के अनुसार....सो इस बार भी ....

आज याद करते हैं पहली सालगिरह की..... खूब यादगार दिन ....
सालगिरह से पहले ..वत्सल था और इसी दिन छोटे भैया की शादी तय थी.....पूरी बस भर बरात लेकर आए थे वत्सल के नामकरण का प्रोग्राम भी साथ ही निपटा लिया था हमने..... माँ के घर ही रुके थे सब फिर बाराती बने......
.
.
.
और हमको तो वक्त भी नहीं मिला था विश करने का एक-दूजे को.... मैं वत्सल में व्यस्त और तुम घर की शादी में.....
दूसरे दिन निकलना भी था वहाँ से भोपाल और दो दिन में आसनसोल.......

फ़ोटो 14 जनवरी 1986 का है वत्सल का आसनसोल का और ये "दागिने"बनाए थे आई ने घर पर खुद चिरौंजी बनाकर ....खूब याद है......
बस इतना ही......
.
.
आज बहुत वक्त है पर विश आज भी दूर से करना मजबूरी है.......
.
मेरा निकलना भी तय नहीं ......
मायरा ने ऊँगली थाम रखी है...... एक मेरी और एक तुम्हारी वाली भी मेरी ही.....
.
कौन मायरा?...... ये तो बताना नहीं पड़ेगा न!:P..आपकी लाड़ली रानू की बेटी.....अपनी नातिन....
हा हा हा .......नानू बन गए हो....अब ......
बधाई हो........ . . . उसे मुझे बताना पड़ेगा.....कौन नानू.......
......

न.... कुछ न कहना ...

साथ हो तुम पर पास नहीं
दूर सही..पर उदास नहीं.....
.
.
.
तीस साला सफर की बधाई.......!
मुझे भी.......

न ........कुछ न कहना ...!
.
फिर निकल भागा फिसलकर एक और साल
मायरा की करते -करते देखभाल ......

.
.
समय को पंख लग गए,
ठहरा वक्त दौड़ पड़ा,
और अब नियति को रोकना
काल के बस में नहीं ......
.
घड़ियां बीत ही जाएंगी
कुछ दुःख और कुछ सुख की
इन्तजार करना पहले की तरह
मगर हाँ, चुप ही रहना .....
न..... कुछ न कहना .......

(वत्सल के पहले क्लिक के साथ)
-अर्चना

Wednesday, November 12, 2014

ये जिंदगी

यूं तो गुजरते -गुजरते गुजर ही जाती है जिन्दगी
पर जब गुजारनी हो तो नहीं गुजरती ये जिन्दगी..

बदलते -बदलते आखिर  कितना बदल गए हम
कि अपने जमाने से कोसों आगे निकल गयी ये जिन्दगी...

चलते-चलते ,चलते ही जाना है ,जाने कितनी दूर तलक
कि सांसों के घोड़ों पर सवार हो सफ़र पर निकल पड़ी ये जिन्दगी...

जाते-जाते अनगिनत दुआएं देकर जाने की ख्वाहिश है मेरी
कि खुदा के घर में भी दुआओं के सहारे बसर कर लेगी ये जिन्दगी....

मिटाते-मिटाते भी नामोंनिशां न मिटा पाएंगे वे मेरा
क्यों कि कतरा-कतरा बन फ़िजा में अब महकेगी ये जिन्दगी.....


Tuesday, November 11, 2014

अनवरत प्रवाहमान कहानी का बारहवाँ टुकड़ा

12-
सुबह स्कूल के लिए निकली तब बगल के मंदिर में दनादन घंटे पीटकर आरती निपटाई जा रही थी ,श्वान महोदय स्कूटर पर स्टंट करके आराम फरमा रहे थे 



 एक गौ माता गोबर करके निपटीं थी ,गोबर कोई उठा कर ले जा चुका था ,श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं .....
 मैंने जल्दबाजी में नियम तोड़ते हुए सड़क पार की ...
स्टॉप पर खड़े होने पर सामने चाय की गुमटी दिख रही है दो 16-17 साल के बच्चे सिगरेट पीते हुए चाय गटक रहे हैं ,पढ़ने आए हैं इंदौर में ऐसे दिख रहे हैं ,कान में हेडफोन ....मेरी नजर उन पर जा टीकी है बहुत गुस्सा आ रहा है मन कर रहा बुला कर पूछूं कहाँ से आए हो या जाकर दो तमाचे जड़ दू




.
.
.
समय खतम इन्तजार का ,स्कूल बस सामने आ खड़ी हुई है अंदर चढ़ने पर भी उन पर नजर है ,अब वे गुमटी वाले से अखबार लेकर अंदर उलटे हाथ का पन्ना पढ़ रहे हैं ...
बस चल दी .....मैं वहीं ..... जाने कितने बच्चे जानबूझकर अनजान बने रहते होंगे ...

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी .....

Sunday, November 2, 2014

तुम्हारे ख़्वाब .....

रोज सुबह उठकर
तुम्हारे ख़्वाब चुनती हूँ
पूजा के फूलों के साथ
झटकती हूँ, सँवारती हूँ
गूँथ लेने को
और गूँथ कर उन्हें
सजा लेती हूँ
मेरे माथे पे
मेरी आँखों की चमक
बढ़ जाती है
और
निखर जाता है
रूप मेरा...

कुछ ख्वाबों के रंग
खिले -खिले से होते हैं
और ये ख्वाब

भीनी सी खुश्बू लिए होते हैं
मुरझाते नहीं
सूखने पर भी

इनकी खुशबू 
महकाए रखती है फ़िजा को
जहाँ से गुजरती हूँ
मेरी मौजूदगी दर्ज हो जाती है
शाम होते -होते
आसमान तैयार होने लगता है 
तारों की टिमटिमाहट लेकर
ख्वाबों के बहाने
चाँद मिलने आता है
चुपके से सूखे ख्वाबों को 

चुरा ले जाता है..

मैं फ़िर
निकल पड़ती हूं
सुबह होते ही चुनने को
तुम्हारे ख़्वाब  .....