माँ-----
कब याद नहीं आती ?.....
हर पल,हर दिन .....
मेरे साथ रहती है .....
मुझसे बातें करती है ....
मुझे छोड कर कहीं नहीं जाती है .....
आज भी आयेगी .....और
मेरे साथ केक खाएगी................Samir Lal
कही "ये" से "वो" बन कर नींद ढो रहे हैं .....
तो कहीं "वो" बनने के बाद अपना "ये" खो रहे हैं..adaa
इसे कहते हैं ------बढिया,खूबसूरत,और मनमोहक प्रस्तुती----पढने ,सुनने ,देखने -----की तीनों विधाओं का भरपूर प्रयोग.......सहेजने योग्य--
एक यादगार पोस्ट-----मनोज
साँप और सीढ़ी
खेली मेरे साथ जिंदगी
निन्यानवे अब तक पार नहीं हुआ
कई बार चढ़ी
खेल अब भी शुरू है
जीतूंगी भी, मै ही
चाहे खेलना पड़े
पीढ़ी दर पीढ़ी.....गीत मेरी अनुभूतियाँ
बिछड़े सभी बारी बारी है....
याद आती बाते सारी है....
चाहे भोला हो या हो फत्तू....................मो सम कौन
जिस घर मेरा बचपन बीता वो घर भूल न पाती हूं....
बाट जोहता है भैया मेरा-ये मैं जान जाती हूँ....इसीलिए माँ -हर सावन में राखी के बहाने आती हूँ....
झूला देख मुझको--माँ पापा की बांहें याद आती है ...
इसीलिए शायद सावन में मेरी आँखें भर आती .........................मेरे गीत
हर जगह बिखरा पडा था ,
मै था एक माटी का लौंदा,
ले न पाता रूप कोई,
मुझको था धर्म,जाति,क्षेत्रियता ने रौंदा,
मिले कुम्हार जीवन में मुझको,
देख जिन्हें मेरा मन कौंधा,
श्रद्धानवत हूँ उनके आगे,
बना जिनसे मेरा घरौंदा.........मेरे कुम्हार
मन नहीं मानता,
अब भी तुम कितना याद आते हो
सुबह जल्दी आँख का खुल जाना
ये तुम्हारी आदत थी,उस समय
आज भी नींद जल्दी खुल जाती है
हाथ आज भी सिरहाने
उन बालों को टटोलता है
जो कभी मेरी उंगलियों से
फ़िसल जाया करते थे
उठ कर चुप बैठ जाती हूँ
सुबह का इंतजार करते हुए
बच्चे बडे हो गए तो
न स्कूल,न टिफ़ीन
और तुम भी नहीं
तो नाश्ते का भी कोई समय नहीं
वैसे भी गले नहीं उतरता
दिल में छेद हो गया है
बहुत दर्द होता है
हूक सी उठती है
पर किसी से कुछ कह भी नहीं पाती
और कहूँ भी तो किससे?
सुनने वाला कौन है यहाँ
उफ़.....तुम भी न...-----स्वप्न मेरे
पता नहीं कब तक
वही आंसू
......
फिर वही शांती
फिर वही पैग
फिर वही पिता
फिर वही कुपुत्र
और अनंत तक चलने वाली
शान्ति की खोज ....---बाबा के बारे में
दो भागों मे बँट जाना होता है ...
फ़िर भी खून के रिश्ते ही निभाना होता है...-- पर क्यों??? ना जाने कोई.
...और जब कुछ लिखने का मन होता है
बन्द करता हूँ आँखों को
पलकों की कोर से भी
कुछ नहीं देखता
तुम हर ओर नजर आती हो
कलम अनायास ही चल पड़ती है
कागज पर उकेरने शब्द
एक लम्बी आह लेकर
और उभर आता है तुम्हारा अक्स
लोग उसे भी कविता कहते हैं.....समीरलाल
....मैने कहा-आँखों से
तुमने सुना मुस्कानों से,
आओ मिल-बैठ कुछ बतिया लें
कुछ धीमे से-कुछ दुबके से...
अब भी तुम न मौन रहो
कुछ तो कह दो चुपके से ...कडुआ सच