गाँव के हालात पर तरस खाता हूँ
जब फसल लहलहाती है
तो जाकर कटवा लाता हूँ
माँ- बाबूजी का क्या है,
रहे,रहे न रहे
किसी भी दिन निकल पड़े
कोरे कागजों पर ही
अँगूठा लगवा लाता हूँ
जब बनाते हैं
मालिक के बच्चे
अपने प्रोजेक्ट
उनके स्कूलों में
उसी बहाने
याद कर लेता हूँ
समय-समय पर
मक्के और बाजरे के भुट्टे ,
आम कच्चे ,
खेत की पगडंडी ,
कुँए की मुंडेर ,
घरों के बाहर -उपलों के ढेर
अब तो एक टी.वी. भी लगवा आया हूँ बैठक में
माँ -बाबूजी से चलफिर हो नहीं पाती
अपनी जमीन है वहाँ
घर पर भी कोई चाहिए
उनके खर्चे-पानी भी निकल जाते हैं
मालिक भी साल में पिकनिक मना आते हैं
,
देश में सुधार की बहुत जरूरत है
अपन करें भी तो क्या?
सरकार भी कुछ करती नहीं
क्या कहा- पढों ? ? ?,अरे यार!
पढने-लिखने के चक्कर में कौन माथा खपाए
अपने को तो ऐसा चाहिए कि-
काम भी न करें ,और पैसे कमाएं
भले किसी काले धन वाले के गुलाम बन जाएं। ..
3 comments:
tanj hai
सुन्दर व्यंग्यात्मक कविता
एक्सेलेंट मई सिस! आज फिर यही कहने को जी चाह रहा है कि मेरा प्रणाम तुम्हें!
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