Friday, December 16, 2011

प्रीत ....

तुम छलना नही छोड़ सकते
तो क्यों मैं छोड़ दूँ अपनी प्रीत  ....

तुम चाहे जग को जीत लो..
पर मैं जाउंगी तुमको जीत...

14 comments:

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

सुन्दर हैं दोनों क्षणिकायें, वाह!

संजय भास्‍कर said...

वाह, क्या बात है...बेहतरीन लिखा है... !

प्रवीण पाण्डेय said...

कैसे अपनी राह छोड़ दूँ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

रश्मि प्रभा... said...

is bhaw me bahut nishchalta hai...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

सच्चे अर्थों में इसे कहते हैं "मेरे मन की".. जब, जो, जैसा मन में आया!! बहुत सुन्दर!!

Kailash Sharma said...

बहुत सुंदर..

Rakesh Kumar said...

अरे वाह! अर्चना जी,
आपका संकल्प तो कमाल का है.

प्रीत की रीत निराली हैं जी.

Unknown said...

सुन्दर रचना ...

सदा said...

बहुत खूब ।

उपेन्द्र नाथ said...

उम्मीद कभी टूटे नहीं... आपकी इस छोटी सी रचना हर उम्मीद को जिन्दा रख सकेगी. बेहतरीन प्रस्तुति.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

क्या बात है... बहुत खूब...
सादर..

Girish Kumar Billore said...

बेशक़
प्रभावी बात कह दी

vandana gupta said...

यही तो होती है सच्ची प्रीत