Wednesday, March 20, 2013

चिड़िया ...


सुबह से खोज रही हूँ तुमको
एक बार भी न दिखी मुझको

मुझको है तुम संग फ़ुदकना
चीं-चीं करते तुमसा ठुमकना

दाना अब तक रखा हुआ है
पानी - कटोरा भरा हुआ है

बोलो कि अब कल आओगी
मिले बिना न कल जाओगी ....

-अर्चना

4 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

चिडियों का आँगन में चहकना कितना अच्छा लगता,

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प्रवीण पाण्डेय said...

बचपन की चंचलता गौरया के फुदकने से प्रेरित होती थी।

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर पंक्तियां,चिडियों में भेद भाव नही होता सबके आँगन में चहकती हैं.

"स्वस्थ जीवन पर-त्वचा की देखभाल"

Ramakant Singh said...

प्रकृति कहूँ या जीव के प्रति आपका अद्भुत प्रेम नमन करता हूँ इस भाव को