सुबह ....जब घड़ी पर नज़र पड़ी 6 बज रहे थे .....
5 बजे निकल जाते थे घूमने कांके डेम के किनारे-किनारे ...बेटा छोटा था तो जाने का मन होते हुए भी न जा सकती थी या फिर ऐसे कहूँ कि बेटा सुबह उठ जाता तो आपकी नींद खुल जाती दुबारा सोना मुश्किल होता तो आप घूमने निकल जाते ....कांके डेम के किनारे-किनारे ...
कभी-कभी तो वो जागते रहता कभी फिर सो जाता और मैं भी सो जाती फिर कई बार आपकी वापसी की कॉलबेल से आँख खुलती और आपके चेहरे पर मुस्कान तैर जाती .....तब मैं चाय बनाती ,हम साथ चाय पीते 6 बजे ...
बाद में मैंने भी जल्दी उठना सीख लिया हम साथ दोनों बच्चों को लेकर घूमते फिर आकर चाय साथ पीते....कभी कभी नहीं जाती तो आपके लौटने तक चाय तैयार मिलती साथ -साथ पीते ... हमेशा दिनभर के काम की प्लानिंग वहीं होती ...
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आपके हॉस्पिटल इन रहते सुबह की चाय 6 बजे बाहर गुमटी पर पी लेती क्यों कि फिर गुमटी वाले का दूध खत्म हो जाता वो लौट जाता ...दिन भर आईं सी यू के बाहर बैठकर आने जाने वालों को ताकते रहते ....रिसेप्शनिस्ट चाय पूछती पर बाद में पीने का मन ही नहीं रहता 2 महीने ऐसे ही बीत गए थे .....
अब हम घर में थे पर चाय भी समय पर बनती पर साथ पी नहीं सकते थे , आपको चम्मच चम्मच देने के बाद मैं पीती......
समय कहाँ और कैसे उड़ा पता नहीं ....
चाय उसी समय बनती रही....स्कूल बस पकड़ने और बच्चों को तैयार करने की भागमभाग में कई बार चाय ज्यादा गरम ज्यादा ठंडी होती...कभी गटकते कभी छोड़ते पीती.....
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अब भी सुबह तलब लगती है ......उठने पर ....
कुछ आदतें चाहने पर भी डेरा नहीं छोड़ती ....
सोचती हूँ अब चाय ही छोड़ दूँ....लेकिन समय को कौन रोक सकता है .....सुबह के 6 तो बजेंगे ही...चिड़ियाएं चहकेंगी ही ...और सूरज उजाला लाते रहेगा ....दिनभर की कोई प्लानिंग भी नहीं करनी अब तो ....
आराम आराम से कट रही जिंदगी....दिन गिनते हुए ....
"वो सुबह कभी न आएगी"....
"वो सुबह कभी तो आएगी".......
(अनवरत लिखी जा रही कहानी का एक पन्ना )