Friday, July 31, 2009

विस्तार है अपार...............शायद आपने सुना न हो..........

बात बहुत पुरानी है , ----करीब १९८६-८७ की...........भुपेन हजारिका जी का एक एलबम आया था...........उसके सब गीत कर्णप्रिय थे ...........एक यह गीत मुझे बहुत ही अच्छा लगता था.......आज भी लगता है.............शायद आपको भी अच्छा लगे..................
विशेष:-------------इस गीत के बारे में मुझे कुछ और जानकारी नही है...........बस अच्छा लगता है इसलिए गाया है.........सुनिए...............मेरी आवाज मे...........

Wednesday, July 29, 2009

जो हुआ सो हुआ .............. बस अब करो सलामती की दुआ

बेमौसम की गर्मी और सूखी हवा
मुरझाये से खडे हैं जो ये पेड जवां
ढूँढ रहे हैं शायद उस शख्स को ,
जो उनकी हालत को कर सके बयाँ
कि दिया है जहर हमने ही उन्हें
हर तरफ़ और हर तरह से ,
उगलकर के धुआँ
माँग रहे है हमसे ही अब मदद
कि लाकर दो दवा ,
या सलामती की करो दुआ ! ! !

Tuesday, July 28, 2009

शिव -स्तुति.................कल नही तो आज सही...........

कल बहुत कोशिश के बाद भी ये स्तुति पोस्ट नही कर पाई थी.............लोड ही नही हो पा रही थी .......खैर कोई बात नही ....कल नही तो आज सही.....................सुनिये ये शिव स्तुति..................



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Monday, July 27, 2009

ज्योतिर्लिंग के दर्शन करें..................


आज गुगल से साभार इस त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करें..............

Sunday, July 26, 2009

जो होता है अच्छे के लिये होता है--------

आज जब मै स्कूल पहुंची थी,सब कुछ ठिक-ठाक था---मसलन---बारिश नही हो रही थी ,सभी बसें समय पर पहुँच चुकी थी ,प्रार्थना की घंटी भी समय पर ही बजी थी ---और रोज की तरह सब बच्चे चेकिंग के डरावने माहौल से निकलकर अपनी-अपनी कक्षाओं में जा चुके थे ......
अभी मै बस बच्चों को भेजकर पलटी ही थी कि एक सर (साथी) ने बताया ------आपका मोबाईल बज रहा है.....
मुझे लगा दोनो बच्चों मे से किसी का होगा.....जब तक पर्स तक पहुँचू कि बजना बन्द हो गया.........फ़िर भी दोबारा बजने का इंतजार करते हुए मैने miss call (अब इसे हिन्दी में क्या लिखूं) देखा.........पर ये क्या ...ये तो स्कूल ओफ़िस से ही था.......क्या हुआ होगा ??? सोचते-सोचते ओफ़िस में पहूँची.................. दरवाजे पर ही प्रिन्सिपल मेडम खडी थी ......वे मेरा ही इंतजार कर रही थी..............देखते ही बोली..................अर्चना एक काम करो............आज तुम लाईब्रेरी में बैठ जाओ..........( उनके चेहरे पर कातिलाना मुस्कुराहट थी ).........लाईब्रेरी! ! !..........मैने लगभग चीखते हुए दोहराया था......................हाँ , उसी चिरपरिचित मुस्कुराहट को हँसी मे बदलते हुए वे बोली आज अपनी लाइब्रेरियन मेडम नही आयी है..................और मुझे भी बरबस हँसी ही गयी .....हँसते हुए ही मैने कहा--------------बस यही काम करना बाकी था..............ओफ़िस स्टाफ़ के चेहरे भी खिल उठे ...........उन्हे तो जैसे भगवान मिल गये............फ़टाफ़ट अरेंजमेंट की डायरी पर मेरा नाम चढा दिया गया............. पिछले ग्यारह सालों मे अपने स्कूल के लिये मैने हर विभाग मे कार्य किया है ................ (अब विद्यालय परिवार की भरोसेमंद कर्मचारी बन गयी हूँ मै) ...... मैने कातर नजरों से देखा....................सातों के सातों पिरियड मुझे दे दिये गये थे .........फ़िर भी हिम्मत करके मेडम से कहा -----सातो पिरियड मुझे ही लेने होंगे ??? मेडम -----हाँ बच्चे बारिश में बाहर भी तो नही जा सकते ???................मै बोल पडी -------मेडम एक काम करती हूँ .......लाईब्रेरी के बदले मै हर एक क्लास में चली जाती हूँ.................कम से कम एक जगह तो नही बैठना पडेगा...............फ़िर कुछ सोच कर मेडम ने कहा--------नही तुम सिर्फ़ ११-१२ वी क्लास के बच्चों के पिरियड ले लो............ठीक है ( दो पीरियड तो घूम पाउंगी मै सोचकर )..............खुश हो गयी मै...........पहली बार लाईब्रेरी में इतनी देर तक रूकना था...........(सच्ची अपनी जिन्दगी में अब तक लाईब्रेरी में कभी पढाई की हो या कुछ भी पढा हो , याद नही आया )..........खैर..........अब जब बच्चों के सामने बैठना ही था तो एक -दो पुस्तकों पर नजर डाली ---------------और नीचे के खाने में रखी एक संस्कृत की किताब पर नजर पडी-----------कुल या चार साल ही संस्कृत पढी होगी मैने ..........पर बहुत मजा आता था उसके श्लोक पढकर ...सो उसी को उठाया और जो कुछ मेरे हाथ लगा .............कुछ श्लोक ( इन्हे श्लोक ही कहते है ना ?) उनके अर्थ------ जैसा मैने समझा----------शायद आपने भी कभी पढ़े हो तो याद जायेगे या पढ़े हो तो (शायद) अच्छे लगेगे ..................

--- हस्तस्य भूषणं दानं , सत्यं कण्ठस्य भूषणम्
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं ,भूषणें किं प्रयोजनम्
अर्थ --हाथ का आभूषण दान है , गले का आभूषण सत्य है , कान का आभूषण शास्त्र या अच्छा श्रवण है , तोफ़िर आभूषणो(गहनों) की क्या आवश्यकता है ?

---उद्यमेन् हि सिद्ध्यन्ति , कार्या्णि मनोरथै:
नहिं सुप्तस्य सिंहस्य , प्रविशन्ति मुखे म्रगा:
अर्थ-- मेहनत करने से ही कार्य पूरे होते है , सिर्फ़ इच्छा करने से कार्य पूरे नही होते , जिस प्रकार कि सोये हुएसिंह के मुंह मे हिरण भोजन के रूप मे प्रवेश नही करता (उसे शिकार करना पडता है भोजन के लिए )

---यथा हि एकेन चक्रेण , रथस्य गति: भवेत्
एवं पुरूषकारेण् विना , दैवं सिद्ध्यति
अर्थ् -- जिस प्रकार एक चक्के ( wheel ) से रथ की गति नही हो सकती, उसी प्रकार परिश्रम केबिना (without effort ) भाग्य ( destiny) सफ़लता नही देता

---नमन्ति फ़लिन: व्रक्षा , नमन्ति गुणिन: जना:
शुष्क व्रक्षाश्च मूर्खाश्च् , नमन्ति कदाचन्
अर्थ-- फ़लदार व्रक्ष /गुणी लोग , झुकते है/नमस्कार करते हैं , परंतु सूखे हुए व्रक्ष और मूर्ख लोग कभी नहीझुकते है

--- म्रक्षिका: व्रण:मिच्छन्ति , धनमिच्छन्ति पार्थिवा:
नीच: कलहमिच्छन्ति , शान्ति मिच्छन्ति साधव:
अर्थ-- मक्खियाँ घाव चाहती है , राजा धन चाहता है या धनप्राप्ति की ईच्छा रखता है , नीच लोग ( mean minded people ) झगडा चाहते हैं , और अच्छे लोग ( good people ) शान्ति ( peace ) चाहते है

--- अक्रोधेन जयेत् क्रोधम् , असाधुं साधुनां जयेत्
जयेत् कदर्यं दानेन् , जयेत सत्येन चान्रतम्
अर्थ-- क्रोध को ,क्रोध करके जीतना चाहिये , दुष्ट (bad person/a wicked ) को साधुभाव (by being good ) द्वारा जीतना चाहिये , कंजूसी (miserliness ) को दान द्वारा ( by being generous ) जीतना चाहियेऔर झूठ को सत्य द्वारा (by truth , i.e. by being truthful ) जीतना चाहिये


ये सब उस किताब से उतारने मे कब समय बीत गया पता ही नही चला.........धन्यवाद मेडम का.........जिन्होने आज लाईब्रेरी से मुझे रूबरू करवाया..........

विशेष :--- प्रयास किया है शुद्ध लिखने का फ़िर भी कुछ मात्राएँ ( र ) की टाईप नही करना आता , इसलिये
( वहाँ गलती है --- अर्थ स्वयं लिखे है , गलती संभव है ------क्षमाप्रार्थी हूँ

Thursday, July 23, 2009

ऐsss........... ईश्वर.........बता .... ना ........! ! !

मै नही चाहती कि कुछ ऐसा लिखू ,
जिससे अरुंधती ,तसनिमा ,रशदी या चेतन भगत की कतार में दिखू ,
चाहती हु मै लिखना मेरी अपनी कहानी ,
वक्त -बेवक्त घटी हुई अनहोनी ,
जिसमे मेरे बच्चो का बचपन कही खो गया ,
और मेरा ईश्वर हमेशा के लिए सो गया ,
मैंने नही सोचा था कभी यहाँ आउगी ,
अपनी जिंदगी में कभी ख़ुद कमाकर खाउगी ,
जब भी कदम बढाया -
तूने हमेशा ही टोका है ,
मुझे शिकायत है तुझसे --
क्योकि तूने
मुझे सावित्री बनने से रोका है ,
माँ
से मैंने सुना था और अब मुझे भी पता है ,
कि जो तू चाहे वही होता है ,
फ़िर भी मुझे अपना समझ -और बता ,
तूने क्या खोया जो
तू यूं रोता है ..........

दिल के करीब...................

बारिश की वजह से सबने आज एक छुट्टी पाई
समय आसानी से बीतता नही देता दिखाई
मौसम ने फ़िर से बरसों पुरानी याद है दिलाई
आज फ़िर वही यादें क्यूँ दिल के करीब आई
शायद फ़िर आ रही है वो २४ जुलाई
रोक नहीं पा रही मेरी आँख फ़िर भर आई
सालों पहले ये तारीख एक मनहूस खबर थी लाई
जिसको सुनकर मेरी तो बस जान पर बन आई..........
किसी को दोष नही देती, चाहती कोई नाम ना
दिल की बात कह रही हूँ , चाहती कोई दाम ना
कर्तव्य सब पूरे हुए,करती हूँ अब ये प्रार्थना
छूट गया था जो हाथ ,फ़िर वही है थामना
तीरथ सारे घूम चुकी , बाकी कोई धाम ना
बाकी रहा अब मेरे बस का कोई काम ना
"तेरा" डटकर करना चाहती हूँ सामना
जब भी आये मुझसे हँसकर मिले , बस यही है कामना...........

Wednesday, July 22, 2009

क्या मै सही हूँ ? ? ?

जब हम सोचते है और हो नही पता ........तब हमें सोचना छोड़ देना चाहिए ...........
जब हम बोलते है और कोई सुनना नही चाहता ..........तब हमें बोलना छोड़ देना चाहिए ...........
बहुत तपने के बाद ही लोहा नरम होता है और .............जब नरम हो तभी उसे मोड़ देना चाहिए ..........
कड़वे रिश्तो की गाठे कसकर बंध जाती है ...............बस हमें उन्हें खोलना छोड़ देना चाहिए .................

Monday, July 20, 2009

दर्शन व भजन करें श्रावण सोमवार पर


श्रावण माह के इस सोमवार पर दर्शन किजिये भगवान महांकालेश्वर-------उज्जैन (मध्यप्रदेश)--के----(चित्रगुगल से साभार )................
.........और सुनिये मेरी आवाज में गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्री रामचरितमानस ग्रन्थ के उत्तरकांडके दोहा नम्बर १०७ की ये प्रार्थना........




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इस प्रार्थना के साथ मेरी , बल्कि हम सब भाई-बहनो की बहुत ही मधुर यादे जुडी है----बात तब की है जब मै ८-९ साल की रही हूँगी--- हर साल श्रावण माह में , हमारे यहाँ खरगोन में , हमारे समाज की धर्मशाला मे गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस का नवान्ह्पारायण का पाठ होता था । हमारे पिताजी हमें वहाँ रोज नियम से ले जाते थे ,परिवार के सभी सदस्यों का वहाँ जाना अनिवार्य था , हम सुबह ४ बजे से उठकर , नहाकर चाँदनी के फ़ूल तोडकर खूब सजाकर लम्बी-लम्बी माला बनाते थे और पिताजी के साथ ही मोटरसाईकिल पर जाने को तैयार हो जाते थे , ६ बजे तक पहुँच जाना होता था , ( भाई -बहनों मे से जो जल्दी तैयार होते वही पिताजी के साथ जा पाते ) , माँ भी आधा खाना पकाकर बाद मे आती थी---जो जल्दी पहुँचता था उनकी माला मुख्य-फ़ोटो पर चढाई जाती थी ---इसलिये हर घर के बच्चों में होड लगी रहती थी-----और माला चढाई जाने पर जो खुशी मिलती थी उसे शब्दों मे बयान नही किया जा सकता---- हमें बहुत सारी प्रार्थनांए वही से मुखाग्र है----अध्यात्म शब्द से हमारा दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नही था बस आनन्द आता था , पाठ के बीच में एक इन्टरवल होता था जिसमें सबको मसाले वाली चाय पीने को मिलती थी जिसका स्वाद आज तक याद है ---- वह भी एक बहुत बडा आकर्षण होता था..........रामायण पढने वालो के लिए (बहुत लोग तो शायद उसी बहाने आते थे) ------१०--साढे १० बजे तक रोज का पाठ समाप्त होने के बाद वापस आकर भी रोज स्कूल जाते थे बिना नागा ! ! ! आखरी दिन समाप्ति के दिन महाप्रसाद होता था ।

अब समय बहुत बदल गया है वो दिन तो अब वापस नही आ सकते मगर आज भी हमारी कोशिश है कि हमारे बच्चो को घर में वही माहौल मिले इसलिये जब भी हम इकठ्ठे होते हैं प्रार्थनाएं जरूर करते हैं.........










Wednesday, July 15, 2009

क्या इतनी बुरी हु मै ??? मुझसे पूछती है -----ये कविताए .........

(मौसी) जी अब आप ही बताओ ??? इसमे किसका दोष है ???
यूं कि हम ज्यादा तो लिखते नही है ,पर जो लिखते है वो काम का हो भी सकता है और नही भी हो सकता है !!!
अब भला जब लोग पढेंगे ही नही तो बतायेगे कैसे कि ये काम का है भी या नही ??????????

लगता है जय ने अकेले ही सारी पढी !!!!!!!!!!!!!!! अगर वीरू होता तो बिना बताए नही रहता इन पर ???............. .......

---आव्हान

---सीख

---सुन मेरे दोस्त -----भाई ,बेटे आदि ----

---खुशी के दो पल

---कोई तो बताओ ???


या यूं कि क्या हमने इतना बुरा लिखा था , या कि ये इतनी बुरी है कि किसी ने भी प्रतिक्रया व्यक्त करना उचित नही समझा ?..........

या यूं कि इन पर किसी की नजर ही नही पड़ी ?..........शायद किसी को इधर -उधर देखने कि फुरसत ही नही मिली ????...............

या फ़िर तब मुझे कोई जानता ही नही था ????????.................. मै कौन हूँ ??? क्या अब भी नही जानता????

Monday, July 13, 2009

एक महत्वपूर्ण सूचना ------------

अगर समयाभाव के कारण मंदिर नही जा पाये हो तो ------दर्शन करे घर बैठे ---

सोमवार ख़त्म होने से पहले एक भजन कर ले ---हमारे साथ ------

ॐ नमः शिवाय ! ! ! ! !

कुछ दिनों पहले मैंने अपनी नासिक यात्रा के दौरान , त्रयम्बकेश्वर की पहाडी पर लिए गए गुप्त गंगा के चित्र दर्शन करवाए थे |आज श्रावन माह का पहला सोमवार है इस अवसर पर मेरे रचना के गाये शंकर जी के इस भजन को सुनिए और आनंद लीजिये ---------- भक्ति रस का --------------
विशेष ---गलतियों पर ध्यान देकर ,भावनाओं पर ध्यान दीजियेगा |







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Sunday, July 12, 2009

कविता जो यूं ही बन गई ------------------

मुझे पता था , तुम न बचोगी
"शब्दों " के इस चक्रव्यूह में ,
फंस कर ही तुम रह जाओगी
" अक्षरो " के इस जंगल में |

" प्रश्न " तुम्हे कहीं जाने न देगा
जब तक तुम उत्तर न लिखोगी ,
"विस्मय " तो सबको तब होगा
जब तुम अपने " कोष्ठक " खोलोगी |

नन्ही " बिंदी " भी खुशबू दे देगी
जब " चंद " को तुम अपना " न " दोगी ,
"व्यंजन " भी " स्वर " से मिल खुश होंगे
जब " चंद्रबिन्दु " संग तुम हँस दोगी |

"अल्पविराम " ले "भाव " भी आ जाएंगे
"मात्रा " संग जब " वाक्य " रचोगी ,
"पूर्णविराम " भी खड़ा हो झूमेगा
जब "अवतरण " में तुम उसे दिखोगी |

बात तो है कुछ ख़ास ही तुममे
मेरे संग सब भी जान ही लेंगे ,
"कविता जो न बन पाई " तो क्या
लेखनी को तो मान ही लेंगे |

मेहनत का फल मीठा होता
लिखोगी , तभी जानोगी ,
"सरस्वती " दादी थी तुम्हारी
बात तो ये मेरी मानोगी |

पकडो शब्दों को ,लिखती जाओ
बोलो ? लिखने से क्या अब तुम बचोगी ,
कहती हूँ मै बहन तुम्हारी --
" डेश "(- रचना ) संग इतिहास रचोगी |



Friday, July 10, 2009

चित्रों के वास्तविक शीर्षक ----------

आओ आज वत्सल के दिए शीर्षकों के साथ पिछली दोनों पेंटिंग्स को देखे ----और उस पर आई टिप्पणियो से जाने कि कितना अलग सोचते है हम ----
इस पेंटिंग का शीर्षक वत्सल ने दिया ----
--"HOLDING HANDS"
और इस पर जो टिप्पणी मिली -----
-
"The Change"! from black fear to orange courage!
:)---रचना

और इस पेंटिंग का शीर्षक जो वत्सल ने दिया -----"चक्र"
अब इस पर आई टिप्पणिया -------
१--- "मछली का घरोंदा "-----सुनील डोगरा

---"अपनी किस्मत आप लिखूँ ,
रंग से भरी इक छाप लिखूँ " ----शारदा अरोरा

---अपने
हाथों से संवारा है
अपनी
इस प्यारी सी
रंग बिरंगी
दुनिया को
और
बनाई है
अपनी एक अलग पहचान..
गौर से देखोगे तो
दिखेंगे
मेरे और बस मेरे
ऊँगलियों के निशान....


*~*


सब बदल जाता है!!
बस, नहीं बदलते
और
जिन्दगी को
दिला जाते हैं
एक अलग पहचान...
ये
तुम्हारे
अँगुठे के निशान!!!

*~*

नोट: ऊँगलियों और अँगुठे के निशान कर्म इंगितकरते हैं.--------------------उड़नतश्तरी

४----" मुंह अपना किनारे को मोड,
मछली चली भंवर को छोड!! " :)रचना




Wednesday, July 8, 2009

चित्र को दो एक प्यारा सा नाम---२


आओ आज करें कुछ रचनात्मक------------- वत्सल की इस पेंटिंग को कोई शीर्षक दे----- या----- लिखे इस पर दो/चार लाईने.............देखे तो कितना अलग -अलग सोचते है हम -------

Tuesday, July 7, 2009

चित्र को दो एक प्यारा -सा नाम---1



आओ
आज करें कुछ रचनात्मक------------- वत्सल की इस पेंटिंग को कोई शीर्षक दे----- या----- लिखे इस पर दो/चार लाईने.............देखे तो कितना अलग -अलग सोचते है हम -------


Sunday, July 5, 2009

मेरे पिताजी ( काकासाब )----

पिछले दिनों फ़ादर्स डे की चर्चा चल रही थी, पिता के बारे में अनेकों पोस्ट पढने को मिली---मेरे पिता ऐसे है/थे, या वैसे है/थे, सबको बहुत याद आए पिताजी---मुझे भी ।----अपने पिता के बारे में भी दिमाग में चलता रहा---कैसे थे ??? क्या लिख सकती हूं ?--- वगैरा-वगैरा। किसी को याद करना बुरा नही है , मगर ये भी सच है की किसी-किसी को भूल ही कब पाते हैं! ! ! ----- बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे मेरे पिताजी---बहुत कुछ सीखा हमने उनसे---उनके रहते तो समझ ही नही आया कि हम कितना कुछ उनसे सीख रहे है, लेकिन अब हर मोड पर उनकी सीख काम आती है ---एक -एक कर बताने की कोशीश करूंगी---आज एक बात याद आ रही है----
चलो वा ! ! !
ये हमारी बोली का एक शब्द है, इसका मतलब है कि --चलो ठीक है ,यानि जो हो चुका उसे भूल जाओ, और अब क्या करना है वो सोचो ।
वे हर छोटी-बडी घटना को एक ही तराजू में तोलते थे, वे कहते थे दुख से बडा कौनसा शब्द है??? यानि किसी को उंगली में ठोकर लगती है और उससे पूछो कि दुख रहा है ? तो वो कहता है-- हाँ दुख रहा है----और किसी का पैर भी कट जाए और उसको पूछो कि दुख रहा है ? तो उसके पास भी यही जबाब होता है कि हाँ दुख रहा है।
जिस प्रकार मुस्कुराना और हँसना दो क्रियाएं है---रोना सिर्फ़ एक ! ! ! आँख भर आना भी रोना है, सुबकना भी रोना है, और दहाड मार कर रोना भी रोना ही है ।
अत: जब भी हमारे जीवन में कोई घटना घटती है तो हमे सकारत्मक रूप से ही सोचना चाहिए कि चलो वा ! ! ! अब हो गया ना , अब क्या कर सकते हैं वो करो ।
वे कहते थे हादसे होना मनुष्य जीवन की समान्य घटना है, उन्हे कभी भी मैने या शायद हम सब भाई- बहनों ने विचलित होते नही देखा ।
शायद इसी सीख के कारण जब भी कोई अनहोनी घटती है तो मेरे कानों में एक वही शब्द गूंजता है----चलो वा ! ! ! हsमs हुई गयू नी ! ! !(अब हो गया ना )! ! !
(विशेष:--- पिछली पोस्ट में आपने मेरा गाना सुना क्या ? ? ? उसमें सीटी भी मैनें ही बजाई है ---किसी से मत कहना ! ! !)

Saturday, July 4, 2009

करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान--------------------

मेहनत का फ़ल मीठा होता है.................बहुत-बहुत आभार सागर जी का.................जिनकी मदद से अपना पहला एकल गीत पोस्ट करने में सफ़लता मीली..................(अब भला कीसी को पसंद आये या न आये सुनना तो पडेगा ही.........और सुन लिया तो बताना भी पडेगा कि कैसा लगा..........हा हा हा )



जीना इसी का नाम है...






Wednesday, July 1, 2009

भला किसी का...

बड़ी मुश्किल से रचना ने सागर जी की मदद से ये ड्राफ्ट तैयार करके मुझे भेजा है , अब मै आपको सुनवाती हूँ ये गीत मेरा रचना का गाया -------
विशेष --- गलतियों पर ध्यान देकर गीत की भावनाओं पर ध्यान दीजियेगा |यदि गीत पढ़ना चाहते हो तो यहाँ पढ़े .........


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