Monday, August 29, 2011

चल पड़े जिधर दो डग

चल पड़े जिधर दो डग
-प्रस्तुत है सोहनलाल द्विवेदी जी द्वारा रचित ’युगावतार गाँधी’ का एक अंश  


चल पड़े जिधर दो डग मग में,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दॄष्टि,
मुड़ गये कोटि दॄग उसी ओर,
जिसके सिर पर निज धरा हाथ,
उसके सिर रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया,
झुक गए उसी पर कोटि माथ,
हे कोटिचरण ! हे कोटिबाहु !
हे कोटिरूप ! हे कोटिनाम !
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि,
हे कोटिमूर्ति  तुमको प्रणाम,
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भॄकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की,
खींचते काल पर अमिट रेख,
तुम बोल उठे युग बोल उठा,
तुम मौन बने युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हें संचित करके,
युग-धर्म जगा,युग-धर्म तना,
युग परिवर्तक ! युग-संस्थापक !
युग संचालक ! हे युगाधार !
युग निर्माता ! युग-मूर्ति ! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार !
                              -सोहनलाल द्विवेदी  

Sunday, August 28, 2011

रोक सको तो रोक लो...

इन्तजार,इन्तजार है
उसमें जितना गुस्सा
उतना ही प्यार है..
रोक नहीं सकता
कोई किसी को
इन्तजार करने से
क्योंकि ये हर किसी का
अपने महबूब से
प्यार का इज़हार है ....



Wednesday, August 24, 2011

अब बस एक याद शेष....

  वाह क्या अदा है! ! ! ...

 कुछ कदम ही साथ चलने का मौका मिला ..पर हौसला और हिम्मत बहुत मिली --
 डा. अमर कुमार said...
धन्यवाद अर्चना जी, मुझे यह विचार इतना पसँद आया कि मन श्रद्धा से भर आया । इससे रोज दान देने की भावना बलवती ही होगी, और इसे एक मिशन के रूप में चलाया जा सकता है । हम दम्पत्ति ने कल 20 तारीख वृहस्पतिवार से ही इसे आरँभ करने का निर्णय लिया है । शुभम भ्रूयात January 19, 2011 12:49 AM
एक गज़ल पंकज सुबीर जी की बिना अनुमति के लगा रही हूँ ..
(कुछ ऐसा ही महसूस किया था तब भी) ---

Thursday, August 18, 2011

बिखरते सपने -टूटती आस



"एक दिन सुबह स्कूल जा रही थी, स्कूल के सामने ही प्रिंसीपल साहब नजर आ गये,रोज की तरह ही नमस्ते किया, तो वह पास आ गये. थोड़ा आश्चर्य तो हुआ मगर मैं रुक गई. उन्होंने कहा कि- क्या आप शाम को लौटते समय ५ मिनट के लिए स्कूल आ सकती है?... न करने का सवाल नहीं था तो मैं सहमति जताती हुई स्कूल के लिए निकल पड़ी. सारा दिन रह-रह क़र यह विचार आता रहा कि आखिर क्या जरुरत आ गई हैं प्रिंसपल साहब को जो उन्होंने मुझे बुलाया है|   ----------एक अंश - बिखरते सपने- टूटती आस से

पढ़िये "हिन्दी गौरव" पत्रिका (जू्न-जुलाई अंक)में प्रकाशित ये रचना--- पेज -47


Saturday, August 6, 2011

हमारा हवामहल -- "इंतजार" आभासी रिश्तों का सम्मिलित प्रयास

कई साल बीत गए जब सुना करती थी विविध भारती पर "हवामहल".....बस उसका संगीत ऐसा रचा-बसा कि अब तक याद है वो नाम ....
बस कुछ नया करने को मन किया और भा गई संजय अनेजा जी की कहानी "इंतजार".....
"साथी हाथ बढ़ाना " गीत की तर्ज पर  .......याद आये सलिल भैया और उन्होंने बदला कहानी को नाटक में ....(मुझे पता नहीं था कि वे ये काम कर सकते हैं मैनें तो बस ये बताया था कि कहानी रिकार्ड करनी है,और दूसरी आवाज भी चाहिए)...
अब करना था रिकार्ड तो दूसरी आवाज के लिए भी मना लिया भैया को .......(बहुत कुछ सीखना भी तो था) .....
काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी ...कभी मैं बिमार तो कभी भैया ....हाय-तौबा करके एक दिन तय कर ही लिया ..वॉईस चेट का इस्तेमाल करना था ..झूमा और भाभी को डिस्टर्ब किए बिना(टी.वी. दखने से) ....
बहुत आवाज आ रही थी सिरियल की ....बेचारे भैया ....लेपटोप लेकर कमरा बदलते रहे ...आखिर दोनों के सोने के बाद शुरूआत हुई.....रिकार्ड किया (एक ही बार मे).......ताम-झाम करके .....
हुआ तो ठीक अब संगीत की कमी खल रही थी .......ये काम सौंपा--पदमसिंग जी को ....वे माहिर हैं इसमें(शायद किसी को पता न हो )....और घर से घूम के आने पर किया वादा पूरा उन्होंने भी ....
इस तरह कई परेशानियों के बाद भी पूरा हुआ "हमारा -हवामहल" ......आभासी रिश्तों का एक और सम्मिलित प्रयास...
चाहा तो था कि इसी ब्लॉग पर पोस्ट करूं ....पर "हिन्दयुग्म" टीम की मेहनत को देखकर इसे वहाँ पोस्ट करना उचित समझा....(अनुराग शर्मा जी का सहयोग भी तो लेना था )
अभी तक किसी से मुलाकात तो नहीं हुई है पर..कार्य आपके सामने है .....
मै अपने  सभी सहयोगियों की आभारी हूँ (बहुत परेशान किया है सबको)......आशा है आप सबको हमारा ये सम्मिलित प्रयास पसन्द आयेगा ...सुनिये यहाँ -----
"हमारा -हवामहल" ..





Monday, August 1, 2011

इस बार "यूनिवर्सल मदर" गर्भनाल पत्रिका में ...जुलाई 2011 -अंक- 56 ,पेज -12

इसे यहाँ भी पढ़ सकते है ---(इसके साथ और भी)
गर्भनाल पत्रिका जुलाई अंक


युनिवर्सल मदर ... 
आज पूजा  बहुत उदास थी । "पूजा"मेरी हमउम्र सहेली एवं स्कूल में मेरी सहकर्मी। हम करीब -करीब सभी बातें एक दूसरे से बांटते हैं,और उम्र के इस पडाव पर आकर इतना अनुभव तो हो ही चुका है कि किसी को उदास या दुखी  देखकर उसके  चेहरे के हावभाव  और बोलचाल से पहचान लूँ कि कोई परेशानी है और बस चल पडती हूँ उसकी मदद करनेपर इस बार पूजा ने जो बताया उसने मुझे भी दुखी कर दिया. मैं सोचने को विवश हो गई कि आज बच्चों को हम स्कूल, परिवार और समाज में किस तरह विकसित कर रहे हैं? क्या यही देश के भावी कर्णधार है. आखिर ऐसी मानसिकता बच्चों में कहाँ से विकसित हो रही है और इसका असली जिम्मेदार कौन है?
मुलतः बच्चे तो वो कोमल पौधा हैं कि उन्हें जैसा विकसित करेंगे, वो वैसे ही बढ़ चलेंगे. तब उनके इस तरह के विकास का जिम्मेदार कौन है? कौन उनकी मनसिकता को रुग्ण किये दे रहा है?
खैर!!! मुझे यह सब सोचने के लिए विवश करने के पीछे और आज पूजा  के चेहरे पर छाई उदासी की असल वजह वो कहानी है, जो पूजा ने अपनी आपबीती मुझे सुनाई. 
पूजा बताने लगी - इस बार जब मैं मम्मी के यहाँ गई तो बेटा साथ नहीं था, अकेले जाना पडा था मुझे,रात भर का सफ़र था,थोडा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। बेटा बस पर छोड़्ने आया था तो सहयात्री से कह गया ----माँ अकेले जा रही है ---ख्याल रखना ।
......पूजा इतने सालों से स्कूल और घर दोनों ही जगह बच्चों के साथ काम कर रही है कि बस माँ के दायरे में ही बंध गई है, उसके सहकर्मी उसके मित्र बन गए हैं,किसी भी उम्र के हों , वो ये दो रिश्तों से कभी बाहर निकल नहीं पाई उसे अपने बारे में भी  कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला या शायद उसने अपने आपको इसी दायरे में बन्द कर लिया था। फ़िर भी मै जानती हूँ कि वो इन दो रिश्तों में ही बहुत खुश है ।
हाँ तो उसने जो बताया --------साथ में जो सहयात्री मिला वो उसके बेटे की उम्र का एक बच्चा था ।चूंकि पूजा ने हमेशा ही माँ का किरदार ओढा तो हर बच्चा उसे अपना लगता है यहाँ तक कि स्कूल से बाहर जाने के बाद बच्चे उसे मेडम के बजाय मम्मी कहना ज्यादा पसंद करते हैं,वो है भी ऐसी कि  बच्चों के साथ बच्चों की उम्र की हो जाती है । नर्सरी से लेकेर बारहवीं के बच्चों के बीच पिछले बारह वर्षो से घिरी है वो और स्वभाव भी ऐसा कि किसी अजनबी पर भीजरूरत से ज्यादा ही विश्वास कर लेती है। मैं उसे रोकती हूँ पर जाने किस मिट्टी की बनी है वो------------बस एक यही काम नहीं होता उससे जहाँ दुख देखा नहीं कि लगी उसे पकडने-------सारे दुख दुसरों से छीन कर अपने पास ही रखना चाहती है ।
उस सहयात्री बच्चे से बातचीत शुरू हुई................ आपसी परिचय,घर-बारनौकरीकैरियर में आगे की योजना  ............आम बच्चों से जैसे बात की जाती है उस तरह सारी बातें कर ली उसने और बच्चा भी बेटा बनकर सब कुछ बताता रहा-------गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते ढेर सारा प्यार न्यौछावर कर दिया अपने इस नए बेटे पर ..
फिर कुछ दिनों बाद एक मेल मिला उसे --हेलो कैसी है आप ?देखिये मैंने आपको ढूंढ लिया ,पहचानामै आपको बस में मिला था ...उस दिन आपका नंबर लेना भूल गया था,प्लीज आपका फोन नम्बर मुझे मेल क़र दीजियेगा और हाँ सच्चे दोस्त कभी नहीं बिछड़ते ..आप मेरी दोस्त बनेंगी ?
पूजा ने पढ़कर जबाब दे दिया था --हां ,क्यों नहीं ,मै ठीक हूँ ,और मै आपकी दोस्त ही हूँ |
फिर कुछ दिन बाद अगले मेल  में   -- हाय, कैसी है आप आपने अपना नंबर नहीं दिया,मैंने दो बार माँगा |
पूजा के ये पूछने पर कि फ़ोन पर बात क्यों करना चाहते होक्या कोई परेशानी है ? उसका जबाब मिला कि मै आपसे बात करके आपके गम दूर करना चाहता हूँ |और हंसी आ गयी पूजा कोउसने बच्चे को बताया कि उसे खुद को व्यस्त रखना आता है और वो कभी दुखी नहीं रहती
आज उसे फिर एक मेल मिला था --मै तो बात करके तुम्हारे अन्दर की औरत को जगाने का प्रयास क़रना चाह  रहा था ,जो कि कही गुम हो गई है पूजा, आई लव यू!!
पूजा ने पढ़ा तो सन्न रह गई और बस यही पूजा कि उदासी का कारण बन गया था कि कहाँ तो वो युनिवर्सल मदर का ख़िताब पा चुकी थी और कहाँ ये बच्चा......
और मै निशब्द हो उसे सुन रही थी ---------
कौन जिम्मेदार है बच्चो की ऐसी रुग्ण मानसिकता का .....
उनके माता-पिता या संस्कार या फिर यह समाज या कुछ और........