Sunday, September 29, 2013

एक गीत कवि गोपालदास "नीरज" जी का



आज बसंत की रात
गमन की बात न करना
धूल बिछाए फूल-बिछौना
बगिया पहने चांदी-सोना
बलिया फेंके जादू-टोना
महक उठे सब पात
हवन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
बौराई अमवा की डाली
गदराई गेंहू की बाली
सरसों खड़ी बजाये ताली
झूम रहे जलजात
शमन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
खिड़की खोल चंद्रमा झांके
चुनरी खींच सितारे टाँके
मना करूँ शोर मचा के
कोयलिया अनखात
गहन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
निंदिया बैरन सुधि बिसराई
सेज निगोड़ी करे ढिठाई
ताना मारे सौत जुन्हाई
रह-रह प्राण पिरत
चुभन की बात न करना
आज बसंत की रात……
ये पीली चूंदर ये चादर
ये सुन्दर छवि, ये रस-गागर
जन्म-मरण की ये राज-कँवर
सब भू की सौगात
गगन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
__________________
गीतकार : गोपालदास नीरज़

Wednesday, September 25, 2013

साथी रे ......


सितारे भी सो गये चांद के संग में
अंतर की चाँदनी टिमटिमाए अंग में

चलो छुप जाएं हम मूँद के पलकें
देख लें सपनों को जो होंगे कल के

खोलेंगे जब पलकों को भोर में हलके
उनींदी आँखों से तुम्हें विदा देंगे चलके

फिर उदासी का वही अन्धड़ आयेगा
चूर होगा गोरा बदन धूल में सन के

दिन के उजाले में दर्द को सह के
सोचेंगे-पलकों से कहीं बूँदें न छलके

याद कर लेंगें तुम्हें हर हिस्से में पल के
देख लेंगे छवि बन्द आँखों में जो झलके....


-अर्चना

Saturday, September 7, 2013

शिरोमणि - एक कहानी


नूतन (कहानियाँ ) नामक ब्लॉग से अन्नपूर्णा बाजपेई जी की कहानी पढ़ते-पढ़ते जाने कितने बच्चे आँखों के सामने से गुजर गए ....
शीर्षक - शिरोमणि

आप भी सुनिए  --

Sunday, September 1, 2013

.... की औलाद

सरिता नई शिक्षिका के रूप में मेरे स्कूल में आई थी।पति का इस शहर में तबादला होने पर उसने भी पुराना शहर ,पुराना स्कूल छोड़ दिया था। समय बीतते-बीतते हम कब सहेली बन गए ; पता ही नहीं चला ।
कल वो पुराने शहर की अपनी यादें, मेरे साथ ताजा कर रही थी ।
बातों की बातों में उसे अपनी पॉश कॉलोनी के घर की याद आई ,बताने लगी-
बहुत ही अच्छी कॉलोनी थी, सभी अच्छी जगहों पर काम करने वाले लोग थे। हमारे पड़ोस का घर जिन दंपत्ति का था ,वे अपने बच्चों के पास विदेश चले गए थे । एक दिन उसमें एक यंग लड़का किरायेदार बनकर आया, किसी कंपनी में अच्छी नौकरी थी। थोड़े परिचय के बाद कभी - कभी बात हो जाया करती थी लेकिन हम भी जॉब करते थे, तो ज्यादा मिलना नहीं होता था ।
एक महीने के बाद एक लड़की उसके साथ आ गई थी ,हमसे मुलाकात हुई कि पत्नी है , कम उम्र ही थे दोनों कभी -कभी अनबन की आवाजें आ जाया करती थी घर से ... दूर से देखकर हम  अपनी बालकनी से मुस्कुरा लिया करते ,लेकिन वो लड़की बात नहीं करती थी कभी...
फ़िर एक दिन पता चला कि वो गर्भ से है ... और वो लड़का टूर पर गया है... ७-८ दिन बीत गए ..इस बीच वो कम ही दिखती बाहर ...दिखती भी तो कुछ अनमनी सी .....
और एक दिन जब मैं स्कूल के लिए निकल रही थी, तो गार्ड को चिल्लाते हुए पाया वो लड़की गेट पर थी और गार्ड से कहासुनी हो रही थी ...बीच-बीच में गालियाँ भी दे रही थी ... कभी सड़क की तरफ़ दौड़ पड़ती .. गार्ड ट्रकों से उसे बचाकर खींच कर वापस लाता ....
उस वक्त तो देर हो रही थी गार्ड से समझा-बुझा कर घर भिजवाकर मैं स्कूल निकल गई ...फोन पर पतिदेव से खबर भी मिल गई थी बीच में कि उनके ऑफ़िस जाने से पहले तक घर में ही थी।
शाम को जब वापस पहूँची तो गार्ड नें बताया कि सड़क पर ही निकली हुई है ,और कुछ दूर तक चली गई है दिखाई नहीं दे रही ... मैं भी घर लौट आई ये सोच कर कि किसी परिचित के पास चली गई हो ...
रात होते ही फ़िर गेट के पास हंगामा हुआ ,गार्ड नें पुलिस को बुला लिया , और पुलिस पकड़कर ले गई ...
गार्ड बता रहा था कि वो साहब तो भाग गए लगते हैं ,फोन भी नहीं उठा रहे थे ..न मेरा न उनकी मेडम का .... और मेडम चिल्लाते हुए कहती भी जा रही थी कि उस औरत को मार डालूंगी - बीबी कहता है अपनी साला .........की औलाद ......

अब मैं सोच रही थी कि जिन्दगी भी कैसी यादों के पन्ने सहेज लेती है, जाने कहाँ - कहाँ से उफ़्फ़! ....

जगत मिथ्या ...

भला क्यूँ रहे ?
नेह भरा ये मन
यूं ही बेचैन...

नेह बंधन
बिन डोर बाँध ले
सबके मन...

करें जो स्नेह
बिना स्वार्थ सतत
बरसे नेह...

भटके मन
छटपटाए तन
कोई संग ना....

मोह न छूटे
सजे सँवारे देह
जगत मिथ्या ...

नश्वर देह!
साथ कुछ न जाये
फिर भी मोह...

देह का बोझा
ढोए जन्मोजनम
मुक्ति की आस....

छोटा पिंजड़ा
पंछी छ्टपटाए
देह न छूटे...

-अर्चना