Wednesday, May 19, 2021

अनमना मन


अनमनी सी बैठी हूं,
चाहती हूं खूब खिलखिलाकर हंसना
कोशिश भी करती हूं हंसने की
पर आंखें बंद होने पर  वो चेहरे दिखते हैं
जिन्हें मेरे साथ खिलखिलाना चाहिए था
अपनी राह में साथ छोड़ बहुत आगे निकल गए वे
और मैं चाहकर भी हंस नहीं पा रही

चाहती हूं इस बारिश के बाद 
इंद्रधनुष को देखूं
पर आसमान में काले बादल ही छंट नहीं रहे
सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है
हर तरफ गड़गड़ाहट के बीच चीत्कार गूंजती है
बाहर से न भीग कर भी अंदर तक भीगा है मन
और मैं ताक रही अनमनी सी...

8 comments:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

सबकी प्राय: यही मानसिक स्थिति है! किंतु विधि के विधान को कौन बदल सकता है!

शिवम कुमार पाण्डेय said...

वक्त ही ऐसा चल रहा है..!

PRAKRITI DARSHAN said...

सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है
हर तरफ गड़गड़ाहट के बीच चीत्कार गूंजती है
बाहर से न भीग कर भी अंदर तक भीगा है मन
और मैं ताक रही अनमनी सी...बहुत गहरी रचना है, चिंतन को विवश करती हुई।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

न जाने ये वक़्त क्या सिखाने आया है । आज शायद हर एक के मन की यही स्थिति है ।

Onkar said...

बहुत सुंदर

Prakash Sah said...

ये आंसू की पंक्तियां मन को छू गयी। बहुत बढ़िया है।

Subodh Sinha said...

"सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है" - आपकी किस वर्त्तमान मनःस्थिति में ये रचना रची गई है, ये तो नहीं पता; पर रचना में व्यथा के साथ-साथ अनूठी रचनात्मक बिंब भी हैं। क़ुदरत आपको सकारत्मक रखे हर पल .. यही शुभकामनाएं है।
हम भी आप की तरह साहित्य की विधाओं से अनभिज्ञ हूँ, बस जो भी मन में आता है बक (लिख) कर मन हल्का कर लेता हूँ .. बस यूँ ही ...

वाणी गीत said...

यह मौसम ही ऐसा है... प्रार्थना ही की जा सकती है कि सब बदले. इस सफर में जो छूट गये , वे न होंगे आगे, यह कसक रहेगी ही :(