Tuesday, January 27, 2009

अनुत्तरीत प्रश्न

तू एक कली थी , कांटे सी चुभी क्यों ?
माला की एक लड़ी थी , टूट के बिखरी क्यों ?
बीच में ही रुक गई , आगे न बढ़ी क्यों ?
पूछती कुछ सवाल , हमसे ही डरी क्यों ?
भीड़ में भी थी यूं , अकेले ही खड़ी क्यों ?
क्या थी हमसे शिकायत ? , जो तू कभी कह न सकी ,
कौनसा था गम तुझे ?, कि तू सह न सकी ,
तेरा वो धीरे से मुस्कराना आज भी याद आता है ,
दर्द तुने ऐसा दिया है कि सहा नहीं जाता है ,
तेरी तारीफ में जो कुछ भी कहें, वो होता है कम ,
और तुझे याद करके है , आज भी आँखे हैं हमारी नम ,
तू थी इतनी शांत ,सौम्य , और गंभीर ,
तेरी बोलती आँखों पर हमारी ही , नजर न पड़ी क्यों ? 

कितना अच्छा होता, जो हम भी तेरे साथ चल पड़ते ,हमारे ही पैरो में है बंधन की कड़ी क्यों??????????????

Friday, January 23, 2009

खुशी के दो पल

उम्र के इस मोड़ पर मै जीना चाहती हूँ ,
कुछ पल अपनी जिंदगी के संवारना हूँ ,
वक्त को यादो में संजोना चाहती हूँ ,
और यादो के मोती एक माला में पीरोना चाहती हूँ ,
अब तक का सफर मैंने ऐसे किया ,
मै किसी में , और कोई मुझमे जीया ,
शेष बचे अपनो को नही खोना चाहती हू,
थोडी देर बस अपने बारे में सोचना चाहती हू ,
क्योकी मरने वाले के साथ तो मरा नही जाता है ,
कोई अपने को कर्ज तो कोई फर्ज से दबा हुआ पाता है ,
कर्ज तो फ़िर भी कभी छोड़ा जा सकता है ,
मगर फर्ज से भी कोई कभी हाथ खींच पाता है?
चलो छोड़ दे दुःख की सारी बाते,
सुख को पकड़कर आपस में बांटे,
आँखों में चमक और सबके होठों पर मुस्कान ले आयें
किसे पता ? आज आँखे खुली है शायद कल बंद हो
जाए।


Wednesday, January 21, 2009

पहला प्रयास

पूरा एक साल बीत गया इस बात को ।
अखबार में "गुरूमंत्र" पढ़ा था विचारों को लिखने की प्रेरणा मिली। अपने बारे में सोचा, पाया- विचार तो आते हैं पर वही बाद में लिखेंगे सोच कर कागज पर नही उतर पाते । बैठे-बैठे गुरूमंत्र का ख्याल आया और कागज पेन ली ,सोचा इस बार तो कुछ लिख ही दूंगी ,मगर क्या? जीवन जितना गुजरा है, कभी सुख तो कभी दुःख है । दुःख का पलडा भारी होने से लगता है जब भी लिखने बैठूंगी तो अपना दुखड़ा ही लिखूंगी ।जिसे पढ़कर और लोग दुखी होंगे, तो सोचती थी - ख़ुद तो दुखी हैं ही दूसरो को दुःख नही देना चाहिए इसलिए अब तक लिखने की हिम्मत नही जुटा पाई थी, इस गुरूमंत्र ने आखें खोल दी ।
किसका दुःख सबसे बड़ा है? प्रश्न उठा।जबाब आया --मेरा।फ़िर अपने आप को माता-पिता, सास-ससुर ,भाई बच्चों,बहन ,बुआ करीब हर रिश्तेदार की जगह रखा और सबके दुःख के बारे में जितना जानती थी, सोचा तो मेरा दुःख सबसे छोटा हो गया और लगा यही सोच कर मै अब तक कुछ नही लिख पाई । उस गुरूमंत्र से प्रेरणा मिली धन्यवाद् । निकाल मिला-
हमेशा अपने को कमतर मानना भी ग़लत है। बहुत से इन्सान जो चाहते है, वो करते है, मगर मै हमेशा वही करती आई जो मेरे सामने आया। सुधामूर्ति जी के लेख पढ़ते समय भी लगता है- वही लिखती है जो रोज होता है। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है की वे लिख लेती हैं और मै लिखती नहीं। वे मदद कर सकती है, मै (चाह कर भी ) नहीं कर पाती। उनके पास देने को फंड है, मेरे पास सिर्फ़ मेरे व मेरे परिवार के लिये ।
मगर अब सोच लिया है -----------फंड बड़ा या छोटा नही मायने रखता देने व लिखने का मन होना चाहिए ।
सब कुछ हो सकता है

Tuesday, January 20, 2009

सुन मेरे............(दोस्त्,भाई,बेटे,........... आदी,आदी )

तू इधर-उधर मत देख,सीधे-सीधे चलता जा।
इसकी -उसकी मत सुन,अपने दिल की करता जा।
अगर इस जीवन में कुछ करने का , ठाना
है।
तो लक्ष्य को देख और आगे बढ़ता जा।
सुखों को बांटता चल और दुखों को सहता जा।
नदिया की तरह रह ,निर्मल और शांत बहता जा।
ख़ुद व्यसनों से दूर रह ,और सबको कहता जा।
गर आसमां को छुना है ,तो ---------------
पंख हिला कर उडता जा

Monday, January 19, 2009

रब ने बना दी जोड़ी ...........

कागज की कीताब से ,
कलम की दवात से,
खुशबू की गुलाब से,
हुस्न की शबाब से,
नींद की ख्वाब से
बेगम की नबाब से ,
हड्डियों की कबाब से,
सुई की सुराख से,
दवाई की खुराक से,
पैसो की हीसाब से,
सुरों की राग से ,
अकल्वरो की दीमाग से,
आतंकियों की नकाब से,
और आदमी की जमात से,
रब ने बना दी जोड़ी