पूरा एक साल बीत गया इस बात को ।
अखबार में "गुरूमंत्र" पढ़ा था विचारों को लिखने की प्रेरणा मिली। अपने बारे में सोचा, पाया- विचार तो आते हैं पर वही बाद में लिखेंगे सोच कर कागज पर नही उतर पाते । बैठे-बैठे गुरूमंत्र का ख्याल आया और कागज पेन ली ,सोचा इस बार तो कुछ लिख ही दूंगी ,मगर क्या? जीवन जितना गुजरा है, कभी सुख तो कभी दुःख है । दुःख का पलडा भारी होने से लगता है जब भी लिखने बैठूंगी तो अपना दुखड़ा ही लिखूंगी ।जिसे पढ़कर और लोग दुखी होंगे, तो सोचती थी - ख़ुद तो दुखी हैं ही दूसरो को दुःख नही देना चाहिए इसलिए अब तक लिखने की हिम्मत नही जुटा पाई थी, इस गुरूमंत्र ने आखें खोल दी ।
किसका दुःख सबसे बड़ा है? प्रश्न उठा।जबाब आया --मेरा।फ़िर अपने आप को माता-पिता, सास-ससुर ,भाई बच्चों,बहन ,बुआ करीब हर रिश्तेदार की जगह रखा और सबके दुःख के बारे में जितना जानती थी, सोचा तो मेरा दुःख सबसे छोटा हो गया और लगा यही सोच कर मै अब तक कुछ नही लिख पाई । उस गुरूमंत्र से प्रेरणा मिली धन्यवाद् । निकाल मिला- हमेशा अपने को कमतर मानना भी ग़लत है। बहुत से इन्सान जो चाहते है, वो करते है, मगर मै हमेशा वही करती आई जो मेरे सामने आया। सुधामूर्ति जी के लेख पढ़ते समय भी लगता है- वही लिखती है जो रोज होता है। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है की वे लिख लेती हैं और मै लिखती नहीं। वे मदद कर सकती है, मै (चाह कर भी ) नहीं कर पाती। उनके पास देने को फंड है, मेरे पास सिर्फ़ मेरे व मेरे परिवार के लिये ।
मगर अब सोच लिया है -----------फंड बड़ा या छोटा नही मायने रखता देने व लिखने का मन होना चाहिए । सब कुछ हो सकता है।
अखबार में "गुरूमंत्र" पढ़ा था विचारों को लिखने की प्रेरणा मिली। अपने बारे में सोचा, पाया- विचार तो आते हैं पर वही बाद में लिखेंगे सोच कर कागज पर नही उतर पाते । बैठे-बैठे गुरूमंत्र का ख्याल आया और कागज पेन ली ,सोचा इस बार तो कुछ लिख ही दूंगी ,मगर क्या? जीवन जितना गुजरा है, कभी सुख तो कभी दुःख है । दुःख का पलडा भारी होने से लगता है जब भी लिखने बैठूंगी तो अपना दुखड़ा ही लिखूंगी ।जिसे पढ़कर और लोग दुखी होंगे, तो सोचती थी - ख़ुद तो दुखी हैं ही दूसरो को दुःख नही देना चाहिए इसलिए अब तक लिखने की हिम्मत नही जुटा पाई थी, इस गुरूमंत्र ने आखें खोल दी ।
किसका दुःख सबसे बड़ा है? प्रश्न उठा।जबाब आया --मेरा।फ़िर अपने आप को माता-पिता, सास-ससुर ,भाई बच्चों,बहन ,बुआ करीब हर रिश्तेदार की जगह रखा और सबके दुःख के बारे में जितना जानती थी, सोचा तो मेरा दुःख सबसे छोटा हो गया और लगा यही सोच कर मै अब तक कुछ नही लिख पाई । उस गुरूमंत्र से प्रेरणा मिली धन्यवाद् । निकाल मिला- हमेशा अपने को कमतर मानना भी ग़लत है। बहुत से इन्सान जो चाहते है, वो करते है, मगर मै हमेशा वही करती आई जो मेरे सामने आया। सुधामूर्ति जी के लेख पढ़ते समय भी लगता है- वही लिखती है जो रोज होता है। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है की वे लिख लेती हैं और मै लिखती नहीं। वे मदद कर सकती है, मै (चाह कर भी ) नहीं कर पाती। उनके पास देने को फंड है, मेरे पास सिर्फ़ मेरे व मेरे परिवार के लिये ।
मगर अब सोच लिया है -----------फंड बड़ा या छोटा नही मायने रखता देने व लिखने का मन होना चाहिए । सब कुछ हो सकता है।
4 comments:
thanks ma :-)
sab kuch ho sakta hai....
bas apne aap mein woh vishwas hona chahiye
हाँ,सब कुछ संभव है।
वत्सल बेटे सही कहा
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