और जब सपने टूट जाते थे ,
और जरूरते रोती थी ,
तब सरकार सपनों की गिनती कर,
जरूरतों के हिसाब से कागज पर,
आंकडे भरती थी.......... मौन थी मै ओम जी की ये कविता पढकर........
कई दिनों से लिखा नहीं क्यों ??आप भी मिस क़र रहें होंगे मेरी तरह...
अब मौन न रहो...----ओम आर्य ...
और जरूरते रोती थी ,
तब सरकार सपनों की गिनती कर,
जरूरतों के हिसाब से कागज पर,
आंकडे भरती थी.......... मौन थी मै ओम जी की ये कविता पढकर........
कई दिनों से लिखा नहीं क्यों ??आप भी मिस क़र रहें होंगे मेरी तरह...
अब मौन न रहो...----ओम आर्य ...
3 comments:
मौन ढूढ़ लेगा राहें अब।
मौन इतना भी मुखर होता है!!!
बेहतरीन ।
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