Tuesday, March 13, 2012

सजनवा बैरी हो गए हमार...

मैं टूटी शाख़ से
उड़ती रही दर-ब-दर
गोया कि कोई पत्ती हूँ किसी पेड़ की..
 

शाख़ हो या दामन
जब भी छूटा करता है,
बिख़र जाता है सब-कुछ 

और दर्द होता है........


सूखने को मुझको न छोड़ो
यूँ पत्ती की तरह
मिलोगे मुझसे तो हरी हो जाउंगी... 



( बस ..मन हुआ और गा लिया.........) Sorry..

13 comments:

वाणी गीत said...

पत्ती तो एक बार सूखने पर नष्ट ही हो जाती है , मगर इंसान फिर- फिर हरा !

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut sundar

Rachana said...

why to say sorry ???

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया,

प्रवीण पाण्डेय said...

हमें गिर गिर कर उठने का वरदान मिला है।

सदा said...

बिल्‍कुल सही किया ..

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ... क्या बात कही है ..

Udan Tashtari said...

क्या बात है...वाह!!

जरुर हरी होना है...

संजय @ मो सम कौन... said...

पत्ती और इंसान में अंतर तो रहता ही है। आपकी कविता अच्छी लगी।

हरकीरत ' हीर' said...

लगता है ये सॉरी किसी खास इन्सान के लिए है और कविता भी .....

उम्मीद है बात उन तक पहुँच गयी होगी ......:))

India Darpan said...

बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
इंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।

Pallavi saxena said...

वाह !!! क्या बात है अंतिम पंक्तियों में गजब का लिखा है आपने...बेहतरीन भाव संयोजन से सुसजित भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

Avinash Chandra said...

सॉरी का क्या तुक हुआ? ये समझाया जाए।
और गीत! हमेशा ही की भांति, I find myself poor.