Sunday, February 3, 2013

करना फ़कीरी फिर क्या....

 






सूंघ तुम पाते नहीं
वरना दूर से
खुशबू पहचान लेते

न जाने तुम्हारी आँखों से
झिल्ली भी कब उतरेगी
जो पढ़ते हो गलत समझते हो
तुम्हारे कान अब पकने लगे हैं
सड़न लग चुकी है उसमें
मधुर संगीत भी तुम्हें
अब कर्कश लगता है -
चिड़िया को गाने से रोकना
यानि तुम्हारे कान का
इलाज भी बाकी है .....
खुद गा पाना
तुम्हारे बस का नहीं
चिल्ला-चिल्ला कर
गला खराब कर चुके हो

बस एक छू सकते हो
मुझे जबरन
लेकिन वो भी
ज्यादा दिन तक नहीं
छू पाओगे ...
मेरे नये पंख अब
उगने लगे हैं
मजबूत वाले .....
घने लम्बे और सफ़ेद....

7 comments:

Akash Mishra said...

नए पंख , घने-लंबे और सफ़ेद , उड़ान ऐसी जो आसमान छू ले |
शुभदिन

नितीश कुo सिंह said...

चिड़ीया को गाने से रोकना
यानि तुम्हारे कान का
इलाज भी बाकि है...

Mast...ekdam sateek..:)

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर कविता!
"करना फ़कीरी" सुनना अच्छा लगा!

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर दी....
पढना और सुनना दोनों सुखकर....

सादर
अनु

Ankur Jain said...

सुंदर प्रस्तुति।।।
बधाई..

Unknown said...

sarthak rachna ....
http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post.html

Ramakant Singh said...

बस एक छू सकते हो
मुझे जबरन
लेकिन वो भी
ज्यादा दिन तक नहीं
छू पाओगे ...
मेरे नये पंख अब
उगने लगे हैं
मजबूत वाले .....
घने लम्बे और सफ़ेद.

हर बार की तरह सुनना बहुत अच्छा लगा