अच्छे मित्रों का साथ रहे तो बहुत कुछ अच्छा-अच्छा सीख सकते हैं हम ---ऐसे ही एक मित्र बने
-आशीष राय
मुलाकात तो कभी हुई नहीं, हाँ देखा जरूर हैं, उनको मैंने और मुझे उन्होंने ...लखनऊ जाना हुआ था मेरा ,(हाँ उसी परिकल्पना सम्मान समारोह में, जिसकी रपट लिखना बाकि है)..:-) पर मुझे बहुत अच्छा लगा था ये अभी भी लिख सकती हूँ ।
एक फोटो पोस्ट की थी उसमें भजिए खा रहे थे
फिर पता चला कि खूब लिखते हैं , "बधशाला" तो ऐसी लिखी कि क्या कहने!... बनाया पॉडकास्ट उसका...
एकाकी मन में स्मृतियाँ
- आशीष राय
और ये रहा मेरा प्रयास--
संध्या- कविता -
धूप अब ढलान पर है
नभ में लाली छाई है
अश्रुपूर्ण नयनों से अब
पीड़ा छलक कर बह आई है....
सांध्य धूलि चमक रही है
हरे पत्तों पर छिटक कर
शांत अंधियारे में उदास मन
सुन रहा पंछियों के प्रीती के स्वर....
नीरव मन के बादल में
कौंधती यादों की बिजली
ज्यो अन्धकार के बीच में
मधुर पलों की एक लौ हो जली....
बिजली की चमक,बादल की गरज
मिलकर रचते ,एक नया फ़लक
खिलता नभ फ़िर अवसाद मिटा
और झरते मोती बन्धन को हटा....
-अर्चना
-आशीष राय
मुलाकात तो कभी हुई नहीं, हाँ देखा जरूर हैं, उनको मैंने और मुझे उन्होंने ...लखनऊ जाना हुआ था मेरा ,(हाँ उसी परिकल्पना सम्मान समारोह में, जिसकी रपट लिखना बाकि है)..:-) पर मुझे बहुत अच्छा लगा था ये अभी भी लिख सकती हूँ ।
हाँ, तो वहाँ किसी से परिचय तो था नहीं, पर उससे पहले "वीरजी" से मिल चुकी थी एक बार ...और शिवम को शायद उन्होंने ही बताया होगा ...शिवम मुझसे आकर मिला था दीदी बोलकर ... (लखनऊ का नाम आया तो बहुत कुछ याद आने लगा है ,लिखती हूँ अलग से ..:-) )
ये जनाब मेरे पीछे की लाईन में बैठे थे-शिखा,अमित शिवम और निवेदिता श्रीवास्तव जी के साथ, लखनऊ से वापस आने के बाद पता चला...
एक फोटो पोस्ट की थी उसमें भजिए खा रहे थे
...फिर फ़ेसबुक पर मित्र बने ,
फिर पता चला कि खूब लिखते हैं , "बधशाला" तो ऐसी लिखी कि क्या कहने!... बनाया पॉडकास्ट उसका...
फिर फ़ेसबुक पर इनके यात्रा संस्मरण पढ़ने को मिलते रहे साथ ही कविताएँ भी...पर मेरी परेशानी ये है, कि इनके लिखे बहुत से शब्दों का अर्थ पता नहीं रहता ... तो मेहनत करनी पड़ती है समझने के लिए ,पर्याय खोजने पड़ते हैं,इनसे ही अर्थ पूछ-पूछ कर समझती हूं ,लेकिन तारीफ़ करनी पड़ेगी कि नाराज नहीं होते ,बताते रहते हैं जितनी ही बार पूछो ...
...और इस चक्कर में दिमाग काम करने लगा अपना ...
इस बार तो इनकी इस कविता की पहली चार लाईनों को समझ कर सरल करने की कोशिश की कि भाव वही रहे.... तो उत्साह बढ़ाया कि आगे ?... फिर क्या था ..आगे बढ़ी ...फिर आगे ? ..फिर किया ...और ये रहा नतीजा ... एक नई कविता टपक पड़ी मेरी ...अगर ये कविता है तो .. :-)
(समझता नहीं न! मुझे इसलिये )
पहले आशीष जी की कविता (शीर्षक नहीं दिया था उन्होंने ..)
तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला
गोरज, रजत भस्म सी दिखती,
बैठी तरुवर के दल पर
नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के पंचम स्वर
एकाकी मन में स्मृतियाँ
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्ज्वल
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन
- आशीष राय और ये रहा मेरा प्रयास--
संध्या- कविता -
धूप अब ढलान पर है
नभ में लाली छाई है
अश्रुपूर्ण नयनों से अब
पीड़ा छलक कर बह आई है....
सांध्य धूलि चमक रही है
हरे पत्तों पर छिटक कर
शांत अंधियारे में उदास मन
सुन रहा पंछियों के प्रीती के स्वर....
नीरव मन के बादल में
कौंधती यादों की बिजली
ज्यो अन्धकार के बीच में
मधुर पलों की एक लौ हो जली....
बिजली की चमक,बादल की गरज
मिलकर रचते ,एक नया फ़लक
खिलता नभ फ़िर अवसाद मिटा
और झरते मोती बन्धन को हटा....
-अर्चना