Sunday, November 2, 2014

तुम्हारे ख़्वाब .....

रोज सुबह उठकर
तुम्हारे ख़्वाब चुनती हूँ
पूजा के फूलों के साथ
झटकती हूँ, सँवारती हूँ
गूँथ लेने को
और गूँथ कर उन्हें
सजा लेती हूँ
मेरे माथे पे
मेरी आँखों की चमक
बढ़ जाती है
और
निखर जाता है
रूप मेरा...

कुछ ख्वाबों के रंग
खिले -खिले से होते हैं
और ये ख्वाब

भीनी सी खुश्बू लिए होते हैं
मुरझाते नहीं
सूखने पर भी

इनकी खुशबू 
महकाए रखती है फ़िजा को
जहाँ से गुजरती हूँ
मेरी मौजूदगी दर्ज हो जाती है
शाम होते -होते
आसमान तैयार होने लगता है 
तारों की टिमटिमाहट लेकर
ख्वाबों के बहाने
चाँद मिलने आता है
चुपके से सूखे ख्वाबों को 

चुरा ले जाता है..

मैं फ़िर
निकल पड़ती हूं
सुबह होते ही चुनने को
तुम्हारे ख़्वाब  .....





7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (03-11-2014) को "अपनी मूर्खता पर भी होता है फख्र" (चर्चा मंच-1786) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Asha Joglekar said...

To pickup the dreams of night every morning.Such a beautiful feeling.

प्रतिभा सक्सेना said...

आध्यात्मिकता की ओर ले जाता भाव-सौन्दर्य इन पंक्तियों में समाया है !

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम का अंत नहीं होता ... जैसे हर रोज़ स्प्प्राज निकलता है ... में भी निकलता हूँ ... फूल चुनने ... भावपूर्ण ...

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना...

शिवनाथ कुमार said...

ऐसे ख्वाब चुनना किसे नहीं पसंद होगा
ख़्वाबों से जीवन की बगिया महकती रहे सदा
सादर !

Archana Chaoji said...
This comment has been removed by the author.