बहुत दिनों बाद भोर में
इस प्रहर नींद खुली
कारण सिर्फ इतना कि-
दिसंबर कि सर्द-सर्द
मीठी सी रात का आखरी प्रहर ...
लिहाफ भी ठंडा
सर्द और कुडकुडा हो चुका है
प्रेम कविता ऐसे ही प्रहर जन्म लेती है
सूरज का इंतज़ार-
कुहासे की चादर में
पंछियों का कलरव
ओस के बगीचे में
देखने का मन ,
सुनने का मन -
रोशनदान से कि
चाँद -चांदनी में
जाने क्या गपशप हुई
और ...
एक अदद चाय कि दरकार ....
बेड-टी ...
....
बालकनी कि दूसरी कुर्सी
झूल कर- कर रही है आवाज
कि जैसे कोई उठकर गया है अभी ....
पलकें खोलूं या न खोलूं
सच है या सपना
सपना हो -तो सच हो...
सच होता है -
भोर का सपना ...
ठण्ड बढ़ी है...
एक और कड़क चाय कि दरकार है ..
अदरक वाली ...
5 comments:
सुन्दर प्रस्तुति
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