आज पढ़ ही ली फ़ुरसत निकाल कर फ़ुरसतिया जी की ये पोस्ट एक बानगी---- "इस बीच तमाम अक्षर आते जा रहे हैं! छोटी ई और बड़ी ई मिलकर या अकेले जैसी मांग हो उसके अनुसार उनकी सेवा करती जा रही हैं। सेवाकार्य पूरा करते ही फ़िर लड़ने लगती- जैसे कि क्रिकेट खिलाड़ी गेंद फ़ील्ड करके च्युंगम चबाने लगाते हैं।"
"कोई शब्द बन-ठन के आया था छोटी ई और बड़ी ई की सेवायें पाने के लिये। बना-ठना तो था ही। जित्ता बना-ठना था उससे ज्यादा अकड़ रहा था। ऐसे जैसे कहीं से फ़्री का कलफ़ लगवा के आया हो!"
"क्या पता खूब सारे स्त्रीलिंग शब्द रहे हों लेकिन उनको उसी तरह मिटा दिया गया हो जिस तरह आज लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है। क्या पता शायद वर्णमाला का निर्धारण किसी मर्दानी सोच वाले ने लिया और स्त्रीलिंग ध्वनियों को अनारकली की तरह इतिहास में दफ़न हो कर दिया हो।"
रंगबिरंगे पर्व पर होली की शुभकामनाओं के साथ कई गीत जगह बना लेते है।
लेकिन मेरे मन को छुआराकेश खंडेलवाल जी के इस गीत नें----
न बजती बाँसुरी कोई न खनके पांव की पायल
न खेतों में लहरता जै किसी का टेसुआ आँचल्
न कलियां हैं उमंगों की, औ खाली आज झोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है
हरे नीले गुलाबी कत्थई सब रंग हैं फीके
न मटकी है दही वाली न माखन के कहीं छींके
लपेटे खिन्नियों का आवरण, मिलती निबोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है
अलावों पर नहीं भुनते चने के तोतई बूटे
सुनहरे रंग बाली के कहीं खलिहान में छूटे
न ही दरवेश ने कोई कहानी आज बोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है
न गेरू से रंगी पौली, न आटे से पुरा आँगन
पता भी चल नहीं पाया कि कब था आ गया फागुन
न देवर की चुहल है , न ही भाभी की ठिठोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है
न कीकर है, न उन पर सूत बांधें उंगलियां कोई
न नौराते के पूजन को किसी ने बालियां बोईं
न अक्षत देहरी बिखरे, न चौखट पर ही रोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है
न ढोलक न मजीरे हैं न तालें हैं मॄदंगों की
न ही दालान से उठती कही भी थाप चंगों की
न रसिये गा रही दिखती कहीं पर कोई टोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है
न कालिंदी की लहरें हैं न कुंजों की सघन छाया
सुनाई दे नहीं पाता किसी ने फाग हो गाया
न शिव बूटी किसी ने आज ठंडाई में घोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है.
शुक्रिया राकेश जी का ...
---और राकेश जी का आभार इन दो पंक्तियों के लिए भी ---
यादों की किताब को छूती जब चैती की धूप
तब तब सावन का मिलता भावों को रंग अनूप
और एक नजर---इस आत्मीय वार्तालाप पर भी --कुछ अंश बातचीत के---- मेरे लिए यादगार पत्राचार..... एक टिप्पणी छोड़ी थी अविनाश के ब्लॉग पर---
------बहुत दिनों से पढ रही हूँ आपको...समझने की कोशिश करती रहती हूँ...आज डरते-डरते पॉडकास्ट बनाने की हिम्मत जुटा पाई हूँ,(गलतियाँ हो सकती है) कॉपी राईट है आपका ...आपको सुनवाना चाहती हूँ(उच्चारण भी सुधारना है)...पर कैसे ? कोई उपाय?..
अविनाश----
आदरणीय अर्चना जी,
सुनता रहा हूँ आपके पॉडकास्ट।
यह मेरी उपलब्धि, मेरा सौभाग्य है जो आपने मेरी किसी रचना को आवाज देने योग्य समझा है।
बहुत छोटा हूँ मैं, समझ में, आयु में, गुणों में, सभी में।
मुझे 'तुम' ही रहने दें, आशीष का वरदहस्त रखें, वही उचित भी है, मेरे लिए सुखकारी भी।
कमी मुझमे ही रही होगी जो आपको समय-समय पर पढने/समझने में असुविधा हुई हो। आप कभी भी मुझे टोक सकती हैं, डांट सकती हैं। मेरा कर्त्तव्य है अपना लिखा हुआ स्पष्ट करना।
ये मेरा ईमेल आईडी है, आप संपर्क कर सकती हैं।
एक बार फिर से, आभार।
सादर,
अविनाश
मै---
स्नेहाशीष,
जानती हूँ छोटे हो...मगर सिर्फ़ आयु में...तुम्हें सुख देना मेरा कर्तव्य है।कमी मुझमें ही है क्यों कि मेरी कभी पढ़ने में रूचि नहीं रही। टोकने और डाँटने की जरूरत नहीं पड़ेगी विश्वास है। मैने जो किया है उसमें कई गलतियाँ हुई है...पर मैं हमेशा सीधे ही रिकार्ड करती हूँ बिना पहले लिखे..जो दिल में आता है वही बोलती चली जाती हूँ तुम्हारे बारे में भी जो कहा- दिल से कहा है कुछ भी बनावटी नहीं ....तुम मेरे बेटे की तरह हो (वत्सल २५ साल का है )गलतियाँ ठीक करवाना। एक तो तुम्हारा नाम ही--चन्द्रा या चन्द्र...फ़िर ब्लॉग का नाम-मेरी कलम से..से कहना था मुझे और फ़िर कविता के कई शब्द....कोशिश की है ---मेरा सुनो....और बताओ ...गलतियाँ सुधारकर फ़िर करूंगी ......पर क्या तुम अपनी आवाज में उन्हें पढ़कर भेज सकते हो?
स्नेह...
अविनाश----
आदरणीय अर्चना जी,
इतना गुणी नहीं हूँ जितना आपने मान दिया है। अपनी आवाज में भेज तो सकता हूँ, लेकिन आपकी आवाज में सुनना अधिक मोहक है और प्रिय भी। इतना अच्छा तो मैं लिख-लिख रट-रट के भी संभवतः नहीं पढ़ सकता।
२-३ चीजें जो छूट गयी हैं, वो बता रहा हूँ:
१) नाम अविनाश चन्द्र है।
२) पहली कविता की दूसरी पंक्ति में "उमग" है। "उमंग" नहीं, जैसा कि आपने पढ़ा है। बिंदु नहीं रहेगा।
३) पहली कविता के दूसरे अनुच्छेद में "अजस्र" है, आपने शायद "अजस" पढ़ा है। उच्चारण ठीक वही है जैसा कि आपने अनवरत के शब्दों को पढ़ते समय "अजस्र" का किया है।
४) पहली कविता, पाँचवे छंद में "विजन को" है, लेकिन पढ़ते समय संभवतः "विज़न जो" हो गया है।
५) दूसरी कविता में "प्रांतर" है, "प्रांत" की जगह।
कठिन शब्द रहे होंगे, लेकिन आपने बहुत ही सही उच्चारण किया है, गलतियाँ कोई भी नहीं हैं।
यहाँ तक कि आपने "हर्म्य" का उच्चारण भी पहली बार में ही सही किया है।
फिर भी इस वात्सल्य के लिए धन्यवाद नहीं कहूँगा, आशीष है, रख लूँगा।
प्रणाम।
मैं---
स्नेहाशीष,
मुझे तो सुनते रहे हो हमेशा... मै हमेशा सुनाती भी रहूंगी। एक बार अपनी आवाज में भेज दोगे तो मुझे भी अच्छा लगेगा।-- इतना अच्छा तो मैं लिख-लिख रट-रट के भी संभवतः नहीं पढ़ सकता। ----इस बात से सहमत नहीं हूँ।
जो गलतियाँ बताई हैं उन्हें सुधार लिया है पर एडिट करके ही क्योंकि जिस भाव से पढा उसकी नकल नहीं हो सकती ...Edit करना भी पहली बार ही सीखा है , वत्सल से...इसलिये अब सुनो फ़िर से ---और इसे पोस्ट करने की अनुमति भी चाहूँगी मेरे ब्लॉग पर ..
मना नहीं करोगे।
स्नेह....
अविनाश----
आपकी आज्ञा है सो अपनी आवाज में भेज रहा हूँ, लेकिन मुझे आपकी आवाज में सुनना ही अधिक प्रिय है।
आपने पहली बार एडिट किया है? और इतना अच्छा?
पोस्ट करने के लिए अनुमति की तो आवश्यकता नहीं ही है। आपको बस आज्ञा करनी है। मुझे हर्ष ही होगा।
मना करने जैसा कोई प्रश्न ही नहीं।
प्रणाम
अविनाश
और अब सही उच्चारण के साथ फ़िर से----
शुक्रिया अविनाश को उसकी आवाज में ---मुझे सुनाने के लिए--( भविष्य मे आपको भी ).....
अभी सासों में गरमी व हाथ नम होंगे, उठते होंगे जज़बात व शब्द भी कम होंगे, सूझता ही नहीं होगा कि क्या और कैसे कहें, बस यूँ ही चुप-चुप से एक -दूसरे को निहारते रहें।
आपदोनोंनेखुदकोहीनहींदोपरिवारोंकोजोड़ाहै, एक -दूजेकोजितनाजानाहै-- थोडाहै। मगरजोसम्बन्धअभीबनेहै,हमेशाप्रगाढहीरहें, औरआपकेसाथसबयूँहीमुस्करातेरहें।
मुझे लिखना नहीं आता.....या कहूँ कि व्यक्त करना नहीं आता खुद को ...बस पढ़ लेती हूँ,जहाँ लगता है मेरी बात सुनी जाएगी या उस पर ध्यान दिया जाएगा,वहाँ कहती हूँ,वरना चुप रहना पसन्द करती हूँ।
समीर लाल जी की ---------------(शब्द नहीं आ रहा क्या लिखूँ,गलत न हो जाए इसलिए जगह खाली छोड़ दी है )--"देख लूँ तो चलूँ"....कुछ ने पढ़ ली, कुछ पढ़ रहे हैं, कुछ पढ़ेंगे।
मुझे भी मिली, (मालूम नहीं था मिलेगी या नहीं),मैनें पढ़ी (छपने से पहले)...बिल्कुल शीर्षक की तरह ---देख लूँ तो चलूँ.......पूरी अभी भी नहीं पढ़ी। मैने अपना हिस्सा पढ़ा और मुझे यकीन है रचना ने भी अपना ही पढ़ा होगा।
हम शुरू से ऐसे ही हैं - दूसरे के हिस्से को नहीं छेड़ते,सिर्फ़ अपना और अपनी पसन्द का ही लेते हैं, बाकी का जिसका होता है उसके पास ही रहने देते हैं।( एक पन्ने पर मेरा व रचना का नाम भी देखा -पता नहीं वहाँ कैसे आ गया!! )
लम्बा पढ़ने से हमेशा से परहेज रहा है मुझे, एक तरफ़ा संवाद पसंद नहीं( शायद एक तरफ़ा जीवन जीने के अनुभव के कारण)...
(चित्र--वत्सल -पल्लवी की पहली होली का-१९८९)
एक ऐसी होली जिसे मैं कभी याद करना नहीं चाहती...और जो मेरे भुलाए नहीं भूलती...।
बात उन दिनोंकी है जब मेरा समय घर से ज्यादा अस्पताल में गुजरा करता था। त्यौहार कब आते ,कब मनकर चले जाते, पता ही नहीं चल पाता था।
१९९४ की होली थी वो....सुनिल के एक्सीडेंट के बाद की पहली होली थी वो.....डॉक्टरों के जबाब दे देने के बाद घर लेकर आ गए थे हम उन्हें...पूरा परिवार इस घटना से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था....उस दिन रंग नहीं ला पाए थे हम बच्चों के लिए या कहूँ याद ही नहीं रहा था कुछ....शाम को डॉक्टर से मिलकर जब लौटी मैं तो बच्चे कहीं दिखाई नही दे रहे थे। मैने आवाज लगाई तो बेटी जिसकी उम्र साढ़े पाँच साल थी ...दौड़ती हुई आई...भीगी हुई थी पूरी....और चेहरा,हाथ,कपड़े सब रंगीन थे...समझ नहीं पा रही थी- हुआ क्या है?
पूछा--- ये क्या किया?
बोली--भैया ने किया।
कहाँ है भैया? ---अन्दर ले गई, बाथरूम में ...
माँ भी आते हुए बोली -यहीं खेल रहे थे दोनों अभी....
और जो हम दोनों ने देखा ----वत्सल भी भीगा हुआ था टब,बाल्टी,मग जिसमें भी पानी था---सारा रंगीन.....
एक दिन पहले ही लाए हुए सारे स्कैच पेन टूटे, और खुले हुए--- बिखरे पड़े थे चारों ओर.....और भोले पन से बोला था---रंग लगाना था न.....आपको और पापा को भी लगाना है....... और मामा को ....नानी को भी .....तो सब का बना लिया.....रानू के पेकेट का भी ..............