Sunday, August 4, 2013

वरना ...






कभी लेटने को खुली छत 

या कभी दो पल को 
सुकून मयस्सर नहीं होता 
वरना 
चाँद -सितारों से 
टिमटिमाते तारों से 
बातें करना 
किसे अच्छा नहीं लगता

इसे कर्मों की करनी कहें 
या भाग्य, 
या अपना नसीब 
कि हम 
पिंजड़े में बंद हैं,
वरना 
खुले आकाश में 
स्वच्छंद हो 
उड़ना 
किसे अच्छा नहीं लगता 

वो तो ,उनके साथ बीते 
पलों की यादें 
पीछा नहीं छोड़ती 
वरना 
सुहाने मौसम में 
सजना ,सँवरना 
किसे अच्छा नहीं लगता
- अर्चना

10 comments:

Ramakant Singh said...

इसे कर्मों की करनी कहें
या भाग्य,
या अपना नसीब
कि हम
पिंजड़े में बंद हैं,
वरना
खुले आकाश में
स्वच्छंद हो
उड़ना
किसे अच्छा नहीं लगता

निःशब्द करते शब्द और तीनो बंध किसे अच्छा नहीं लगता
दिल की बात को शब्द दे दिए गए जो बोल बन गए ***मेरे मन की ***

ताऊ रामपुरिया said...

निशब्द करती मार्मिक रचना.

रामराम.

शिवनाथ कुमार said...

इस व्यस्त जिन्दगी की छुपा दर्द है यह
सच में किसे अच्छा नहीं लगता खुला आसमां निहारना

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।

दिगम्बर नासवा said...

यादें चिपक जाती हैं उम्र भर के लिए ... कुछ नहीं करने देती ... मार्मिक शब्द ...

अनुपमा पाठक said...

'कि हम
पिंजड़े में बंद हैं,'

काश कुछ पलों का अवकाश मिलता, उड़ पाते!

वाणी गीत said...

मार्मिक विवशता शब्दों में साकार !

प्रवीण पाण्डेय said...

देश हमारा, वेश हमारा,
उन पर आश्रित शेष हमारा,
आज पवन भी चुप हो बैठी,
कह देती संदेश हमारा।

Anju (Anu) Chaudhary said...

सही कहा अर्चना जी .....एक खुशहाल जिंदगी का सपना किसे अच्छा नहीं लगता

ब्लॉग - चिट्ठा said...

आपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।