Sunday, July 27, 2014

आभासी,बेनाम और अज्ञात लोग ...

1-

इस आभासी मुल्क में
अनजाने लोग
बन जाते हैं अपने
जाने कैसे?
न कोई जात न पात
न धर्म न भात
न एक खून
बस एक जूनून!
मिलना -मिलाना
भाईचारा निभाना
सुख में हँसना
तो दुःख में रोना
कर लेते हैं साथ
जाने कैसे ?
अनजाने लोग
इस आभासी मुल्क में ....

2-

एक अनाम रिश्ता
बेनाम लोगों से
बदनाम बस्ती में
बन जाया करता है
जिसके भरोसे भी
बीत जाया करती है
जिन्दगी .....

3-

अज्ञात और लावारिस
किसी के तो सगे होते होंगे
शायद विपदा के या
किसी आपदा के ही
तभी तो ले आती है
उनके लिए
मौत को साथ ....
पर कोई अपना
इतना क्रूर होता है भला
कि छोड़ कर निर्जन में
चला जाए अकेला ...
-अर्चना

अजीब उलझन में फंसा मन .....

1-

बंद पड़े संदूक से
निकल रही है
तुम्हारे हाथों कटी
पुराने अखबार की
कतरने!!
और
अपने बच्चों की किताबें...
.......
उठाती हूँ फेंकने के लिए
पलटती हूँ पन्ने
और फिर
धूल झाड़ कर
रख लेती हूँ
वापस संदूक में......

2-

सिलाई मशीन !.....कितनों के पास है ,जो सिर्फ पडी है .....
बहुत शौक से खरीदी थी !!!...

उसे निकाल दूं
जब ये बात आती है
तो आँखों के आगे उड़ने लगते है
नन्हे नन्हे रंगबिरंगे झबले और फ्राक बिटिया के ...
और अब "मायरा" भी तो है!......
नानी के हाथों सजने को ......
.
.
.
हुनर तो है
बस मन नहीं .....

3-

ऐसे ही नहीं जन्म लेती
कविताएँ,और
खूबसूरत नज़्में
उसके लिए प्रेम करो
अपने से
अपने लोगों से
सिर्फ सजीव ही नहीं
घर ,और घर में पड़े
निर्जीव सामान-
टेबल-कुर्सी
पलंग -तकिये
पुरानी किताबों और
रद्दी पड़े पेन्सिल के टुकड़ों से भी...
यहाँ तक कि
उस झाडू से भी
जो बुहार
नहीं सकी हो
अब तक
पुरानी यादों को
और
फिर देखना
तुम भी
जन्मोगे 
कविताएँ
और
खूबसूरत नज़्में......!!!

-अर्चना
( 27-07-2014,10:26)

Saturday, July 26, 2014

बाढ़ का पानी काट देता है सारे बंधन

24 जुलाई दोपहर अचानक मेसेज मिला Nitesh Upadhyay  जी का - आज प्ले है, 7:30 पर आप आएं ....
बारिश की छुट्टी पर इस तरह गिफ्ट मिलेगा अंदाजा नहीं था ....:P
किस्मत अच्छी थी और सितारे भी ....हल्की बौछारों ने मौसम को भी खुशगवार बना दिया था ,बस! चली गई.....गेट पर इतनी भीड़ और सबके हाथों में पास देख थोड़ी घबराहट हुई ,नज़रें किसी परिचित को खोजने लगी ,सबने पास कहाँ से लिए ये भी पता नहीं लग रहा था ,कोई न दिखने पर टैब निकाल नितेश जी को मेसेज लिखा - पास?
रिप्लाय पढ़ा भी नहीं कि हॉल के गेट से एक लम्बा चौड़ा युवक बाहर आया ,नज़रे मिलते ही उतनी ही लम्बी मुस्कान  दी.....
झुक कर विनम्रता का परिचय दिया और कहा -बस 3 मिनट! देर से मेसेज देने के लिए सॉरी कहना भी नहीं भूला .....
मैं तो गदगद -कि पहचान  लिया ....:-D

और बिलकुल 3 मिनट में एंट्री ---

नाटक का विषय बाढ़ से प्रभावित गाँव की कहानी और मुसीबत के समय तुच्छ जाती माने जाने वाले लोगों द्वारा की गई मदद की कहानी  ,शीर्षक था -बाढ़ का पानी लेखक -शंकर शेष 

I'm so lucky....सच में बहुत बढ़िया मंचन -सधाहुआ ...सारे पात्र बधाई  के हकदार है ,सभी का पहला नाटक था,लगा नहीं ...सबसे ज्यादा आकर्षित किया विक्षिप्त के किरदार ने ,जो विक्षिप्त होकर भी समय -समय पर अपने भाव व्यक्त करता रहा ......पात्र -परिचय याद नहीं वर्ना कलाकार का नाम जरूर लिखती , Kalim Chanchal की कव्वाली ने वास्तविकता दर्शाई आदमी की....Nitesh  का निर्देशन लाज़वाब .....विषय भी सटीक,और सामयिक ...इस नाटक का अगला मंचन भी देखना चाहूंगी ...सामाजिक कुरीती के खिलाफ लोगों को जागरूक करने का सन्देश सफलता पूर्वक लोगों तक पहुंचाया  है निर्देशक ने ...
खचाखच भरे हाल में दर्शक होना भी आनंद दायक लगा ....और जब नाटक समाप्ति पर कलीम के सामने गई ,- आप अर्चना चावजी .....(.पहली मुलाकात फेसबुक फ्रेंड से)
आनंदम आनंदम ......
"24 जुलाई अपना यादों का कोना ले जा चुकी थी शायद ...."

सबको फिर से बधाई और शुभकामनाएँ ...

Thursday, July 24, 2014

यादों का अटका कोना ...

24 जुलाई
तुम फिर आई
एक बुरी याद लेकर
जिसका कोना कहीं
फंसा हुआ है दिमाग में
और इसी वजह से
फेंकने में सफल नहीं हो पाई
अब तक उसे बाहर
वरना तो
हादसों की तारीखें
कहाँ याद रहती है....

दूसरे दिन इतवार
मिली थी खबर
गिरी थी जिप्सी खाई में
छुट्टी का था दिन
लगा रखी थी मेंहदी
बालों में और
रच गए थे हाथ खुद ब खुद
भागे-भागे उतारी मेंहदी
मगर हाथों पे रंग चढ़ा रहा
अपने प्यार की
रंगत लिए
आवाज आई-
क्या करेंगी आप ?
जाना पड़ेगा आपको,
बच्चों को लेंगी साथ
या छोड़ जाएंगी?
दुविधा में थी -
घर-परिवार से कोसों दूर
बच्चे हादसे को सह न पाएंगे
सजीव देख...
डर गयी थी
सोच -भीतर तब
तय कर लिया छोड़ना
कहाँ?
आस लिए नज़रें
आपही घूमीं चारों ओर
लोग इकट्ठे हो चुके थे
सच्चे दोस्त का चेहरा
पहचान, रूक गयी आप ही
चल पडी अनजानी राह पे
छोड़ 7साला वत्सल
और 5साला पल्लवी को
जिसका पांचवां जन्मदिन
20 को ही मनाया था
पहली बार उनके बिना ....

रोई नहीं मैं
बस आँखे भरती रही
जबरन !
पहली हवाई यात्रा
उफ़!
अजीब सिहरन !!!
कलकत्ता -अब तो
नाम भी बदल गया
इस महानगर का
रूकना था
अतिवृष्टि और
कुछ असमंजस के कारण
मिला दास साहब का घर
बहुत पुरानी हवेली -सा
रात बितानी थी
गौहाटी के रास्ते
साधन न मिलने पर
उनकी माँ -चाची
हाथ फेरती रही सिरहाने बैठ
मेंहंदी लगे बालों में
शुभ होता है मीठा खाना
कह -बढाया रसगुल्ला
अनजान शहर
अनजान लोग
और इतना दुलार
मन रोया फूट -फूट कर.....

शशी दादा पहुँच चुके थे
पहली बार बात हुई मेरी
चचेरे जेठ जी से..
और
सुबह फिर नई यात्रा
हवाई अड्डे पर
हुई मुलाकात
मेरी सखी से
हाँ ,
हाँ ,उसे भी लाया गया था
इसी तरह
मगर अब उसे आगे नहीं जाना था
किस्मत रूठ गयी थी उससे
शरीर लौट रहा था
उसके पिया का .....
एक -दूसरे से नज़रे मिली थी
डर से सामना करना
तय हो गया था उसी वक्त......

फिर आसमानी सफ़र
खिड़की से झांक
लगा था अंदाजा
खूबसूरत ,प्यारी
दयालु धरती माँ का
बंद आखों में टूटते
सपने थे ,और सिर्फ
मेरे अपने थे
बच्चों की निगाहें
और उनकी आशाएं
"पापा को लेने गई मम्मी".......

"गौहाटी" देवी का घर
गेस्ट हाऊस और स्टाफ
अब सिर्फ रूह टकराती है सबकी
एक टैक्सी- वर्मा और चालना साहब
खौफ़ भरा सफ़र
7 किलोमीटर....
इतना लंबा !!!कि
ख़तम हुआ नहीं लगता था
खैर!
न्युरोलोजिकल हॉस्पिटल
एंड रिसर्च सेंटर
मुस्कुराती मिली थी यहीं
"उत्पला बोरड़ोलाई"
जिसकी मुस्कान बस गई है
मेरे चेहरे पर अब ....
जबकि
चढ़ते हुए सीढियाँ
चल रहा था
मंथन ,क्रंदन ,
अंतर -रूदन .....

अंतिम सीढ़ी-
हाथ बाँधे ,पीठ टिकाए
डॉक्टर चक्रवर्ती
लगातार तीन दिनों से
जागते हुए ...
-हेल्लो-ये "मिसेस चावजी"
देख चौंके थे मुझे
जाने क्यों ?
अब लगता है -
शायद मुझे संयमित देख...
आईये-
पहले देख लीजिये
फिर बात करते हैं
इतना ही बोल पाए थे,
आई सी यू वार्ड
गहरा सन्नाटा
और दहशत ...
चार बेड
सब एक से मरीज
कोमा में ....
बस !!!
आंख भर देखा
हाथ को छुआ
लगा -सोए ही हैं ...
कुछ कहना नहीं था ,
न ही सुनना
कहा-सुनी की गुंजाईश ही नहीं ....
बाहर आ
तीन दिनों से रूकी
सांस भरी ....
एक लम्बे ,पथरीले
कंटीले और उबाऊ ,
और एकाकी..
सफ़र पर चलने को......
.....
....
और बस चलते-चलते
घिसटते-दौड़ते
भागते-छिपते
खुशियों को पकड़ते
आ पहुंची हूँ
पड़ाव के करीब...
मुझे पता है-
तुम फिर चली जाओगी
बीत जाओगी
बीते सालों की तरह
पर अब चले ही जाना
अपना कोना लेकर .......

Wednesday, July 9, 2014

एक याद स्नेहिल मुस्कान की ...

"उत्पला बोरडोलाई" ...........एक ऐसा चेहरा जो आज भी याद आता है मुझे .......
बात है 1993 जुलाई की ......
मेरे पति सुनील के एक्सीडेंट की खबर मिलने पर गौहाटी के जिस अस्पताल में मुझे ले जाया गया था उस अस्पताल पर रिसेप्शन काउंटर पर छोटे कद की एक दुबली पतली हल्के सांवली सी हंसमुख लड़की ......हाँ यही पहचान याद है मुझे
मैं माँ और भाई के साथ वेटिंग स्पेस में बैठी रहती ....
और जब अपने दिमाग को शांत करने की कोशिश करती तो बस एक यही चेहरा था जिस पर नज़र रूकती थी और नज़र मिलते ही वो मुस्कुराती इस आशा में कि मैं भी मुस्कुराउंगी.....पर मैं असफल रहती .....पूरे दो महीने गुजारे थे  उसे देखते हुए ....
और इतने दिन में कुछ बेहतर हो गयी थी मैं ......मुस्कुराने लगी थी .....
शायद हर दिन ज़िंदा और मुर्दा लोगों को देखते-देखते एक यही बात समझ पाई थी कि मुस्कान वाकई कीमती है हर किसी को नसीब नहीं !!!
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घर शिफ्ट किया तो कल ये शो पीस सामने आया और साथ लाया उत्पला की याद .....
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अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वापस आते समय "बेस्ट ऑफ़ लक" कहते -कहते उसकी आँखों में आँसू भी देखे थे मैंने .....और उसने एक पेकेट थमा दिया मना करने पर कहा- मेरी याद रहेगी !....
भरी-भरी आँखों से विदा ली थी मैंने उससे और अस्पताल के स्टॉफ से ....
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कई दिनों बाद जब वक्त मिला और पेकेट खोला तो ये शो पीस देखा .....मन ही मन थैंक्स कहा और सजा लिया अपने घर में .... मुझे लगता है जैसे मेरे दोनों बच्चे ऐसे ही मेरी ओर ताकते रहते थे और हैं .....

जितने भी घर बदले इसे सजाए/संभाले  रखती हूँ ...

उत्पला आज कहाँ है नहीं जानती पर जहाँ कही भी हों वही मुस्कराहट बिखेर रही होंगी मैं उससे यही कहना चाहती हूँ ,जिन बच्चों के बारे में उनसे बताया था कि घर पर छोड़ कर आई हूँ ,आज बड़े हो गए हैं और उन्हें भी मैंने तुम्हारी तरह मुस्कुराना सीखा दिया है ........
मुझे विश्वास है वे भी तुम्हारी तरह मुस्कान बिखेरेंगे हर हाल में ........

Tuesday, July 8, 2014

पहली बारिश

अब लिखेंगे खूब बरस कर
हम बारिश पर कविताएँ
कहीं भरेंगे नाले,पोखर,
और कहीं पर सरिताएँ...

कहीं करेंगे मेंढक टर्र -टर्र
कहीं बजेगा झिंगुरी गान
बूंदों की टिप-टिप के संग में
पकौड़े होंगे ख़ास पकवान...

हल्की -हल्की बौछारों से
जब भीगेगा आँचल -तन
चुपके-चुपके भीग जाएगा
नयनों की बारिश में मन ...

झुके-झुके से पेड़ लटक कर
नन्हीं बूंदों को सहलाते हैं
उनको देख-देखकर मुझको
मेरे साजन याद आते हैं .....

ओ बरखा!तुम रोज़ ही आना
ले जाने को मेरा संदेसा
साजन को गीली पतिया से
शायद पीड़ा का हो अंदेसा !!!......

-अर्चना




Monday, July 7, 2014

बचपन

मेरे बालमंदिर की फोटो
कितना प्यारा होता है बचपन ...और बचपन की यादें .....घर के सामान की उठापटक के बीच से मिली ये तस्वीरें जैसे ही सामने आई ,सब अपने लोग याद आए .....और बहुत याद किया नितीन को ...मेरा बाल सखा .... मेरी दाहिनी और एक छोड़कर .....

Sunday, July 6, 2014

मेरा ईश्वर मेरे अन्दर ....

ब्लॉगर कैलाश शर्मा जी के ब्लॉग - Kashish - My Poetry से तीन साल पहले बनाया था ये पॉडकास्ट और पोस्ट किया था  गिरिश बिल्लोरे मुकुल जी के ब्लॉग मिसफ़िट पर 
आज मन किया "मेरे मन की"पर संजोने का ,क्यों कि ये मेरा बेहद प्रिय पॉडकास्ट है ....

गुलाब ....

फ़िर एक बार घर शिफ़्ट हो रहा है , जो सामान हाथ में आ रहा है उससे जुड़ी यादें उसमें उलझे धागे की तरह एक सिरे से फ़ंसकर उधड़ती है और हाथ वहीं रूक जाते हैं सब कुछ थोड़ी देर के लिए स्थिर ... एक झोंका ... और सब कुछ बिखरा -बिखरा ..... दूर तक .... 
ये उदासी की चादर भी अजीब होती है ...

शादी से पहले अपने हाथों से काढ़ा गुलाब शादी में "रूखवत" में रखा गया था क्यों की शादी महाराष्ट्रीयन संस्कृति अपना चुके गुजराती परिवार में तय हुई थी ...शुरूआत में ससुराल की बैठक की शोभा बढ़ाते रहा .....फिर जब मेरे पास पहुंचा तो कई सालों से अलग -अलग घरों में घूमते रहा ......
पहली फ्रेम के साथ छोड़ने पर ,साड़ियों के साथ तह में छुपा रहा ,कई बार टंगने के लिए दीवार मिली कई बार नहीं ........
अब भी न सजे हुए करीब 4-5 साल हो गए ......आज सामने आ गया वही पहली सी मुस्कराहट लिए ........
आज जरूरत भी महसूस हो रही थी इससे मिलने की ..
.

Wednesday, July 2, 2014

छोटी सी बात

रिश्ते निभाना /चोटें सहलाना बड़ा आसान होता है मगर
बस! इनको निभाने/सहलाने को एक आँचल होना चाहिए....