Friday, November 25, 2016

उथल-पुथल मची हुई है मन में

बहुत जरूरी पोस्ट,बहुत उथल-पुथल मची हुई है मन में  -
..बहुत समझ तो नहीं  है मुझे, पर नोटबंदी का विरोध भी बेमानी  लगता है। जिस तरह के हालात आजकल सब तरफ हम देख रहे हैं. उसे देखते हुए हमें वर्तमान  में रहने की आदत बना लेनी चाहिए। .... पैसे वाला सदा ही पैसा बटोरने में लगा रहेगा ,मेहनत कर कमाने वाला सदा मेहनत करके ही खायेगा। ... इतना बड़ा फैसला लिया है तो बिना सोचे-समझे तो नहीं ही लिया होगा। ...आखिर पद की भी कोई गरिमा होती है। ...कई कार्य आप पद पर रहते हुए ही कर सकते हैं। .... हाँ जिन मुश्किलों की कल्पना उन्होंने की होंगी ,मुश्किलें उससे कई गुना ज्यादा और भयावह तरीके से सामने आई। ..... नेताओं का अपने मतलब के लिए आगे आना शौक बनाता जा रहा है ,जो आप और हम सब जानते हैं ।

सूझ-बूझ की कमी बुजुर्गों व आजकल की पीढी में कम मगर जो मध्य की उम्र के लोग हैं- उनमें ज्यादा दिखी। .... गाँवों की अपनी समस्याएँ हैं वे अपनी रूढ़ियों को बदलने को वैसे भी जल्दी तैयार नहीं होते। ... शहर में भी आकर  शहर की भीड़ ज्यादा बन जाते हैं। .... भोले लोगों को झपट्टा मारकर फांसने वाले शहरी लोगों को वे पहचान नहीं पाते। ...न ही शहरी पढ़ालिखा उनकी मदद को सदा तैयार बैठा रहता है। ..... समस्या की जड़ सिर्फ नोटबंदी नहीं है। .... नोटबंदी के कारण जो समस्या हो रही है वो पढने-लिखने से तौबा करने वाले,..बिना सोचे परिवार बढ़ाने वाले लोग ज्यादा झेल रहे हैं। .... आप सोचिये। ...आपने इस बीच कितनों की मदद की ?

कल ही एक इंटरव्यू देखा -- टोल फ्री की सुविधा से खुश थे मगर उनका ये कहना की वसूली तो बदस्तूर जारी है। ..... समझ नहीं आया -सीधे सरकार की साईट पर शिकायतें दर्ज क्यों नहीं की जा रही? ... किस बात से डरते हैं लोग? शायद कहीं न कहीं खुद भी गलत कर रहे होते हैं क्या ?

 मुझे खुद अपने पास पैसे रखने की आदत है। ..अभी भी १००० -५०० के नोट  रह गए हैं बदलवाने के लेकिन जमा करने की अवधि है अभी। ... नेटबेंकिंग सीखी और पिछले चार सालों से लगातार सीखती जा रही हूँ। ...... हाल ही में टोल फ्री नंबर से सहायता लेकर बैंक से समस्या हल करवाई। .....
ये सही है कि  जो छोटे और खुदरा कामकाज वाले लोग हैं उनके खाते नहीं है बैंक में। ..लेकिन उनमें से भी ५०% लोगों के खुलवाये जा सकते हैं जो होने चाहिए थे। .. अब भी हो जाएंगे।

जिनसे आप रोजमर्रा के काम लेते हैं उन्हें इकट्ठा पैसा दे सकते हैं। ... लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न तो ईमानदारी का आता है। .हम डरते हैं कहीं पैसा डूब गया तो ? विश्वास करना सीखना होगा। .... और सीखाना होगा हानि उठाकर भी। .....

और एक अहम् बात। ....जब तक लोग अपने परिवार से बाहर निकल पड़ोसियों को अपना परिवार का हिस्सा नहीं बनाएंगे। .."जाने दो हमें क्या" की सोच से बाहर खुद को नहीं लाएंगे। ... तब तक मौतें लाईन में तो क्या घर के सामने भी होती रहेंगी। ......
स्कूल में मैंने देखा है - शिक्षक जिम्मेदारियों से हाथ चुराते हैं और आजकल तो अभिभावक भी। ....


हादसे एक  पूरे परिवार को ही नहीं एक पूरे कुनबे को ख़तम कर देते हैं। .... एक पूरी पीढ़ी  पीछे चले जाते हैं लोग। ट्रेन हादसे में एक पत्रकार के घायल बच्चे के परिजन से किया प्रश्न - जब हादसा हुआ तो आपको कैसा फील हुआ ? इस बच्चे के माता-पिता ? जबकि वे नहीं रहे ये जानकारी के बिना पत्रकार इंटरव्यू लेने नहीं गया होगा । हमें भीतर तक संवेदनहीन बना रहे हैं।

राजनीति किसी को भी गर्त में धकेल सकती है।

...अपना कर्म करें वो भी पूरी ईमानदारी के साथ। ...आवाज उठाएं गलती करने वालों का विरोध करें, अपनी भाषा की गरिमा बनाए रखें। ...बच्चे आपसे ही सीखते हैं। ..जो आप परोसेंगे वे वही खाएंगे। ... संस्कार ककिसी पेड़ पर नहीं लगते न किसी खदान में गड़े होते हैं। ..वे आपके साथ ही सारी जिंदगी चलते हैं और आपके मरने के बाद आपके बच्चों के साथ चलने लगते है। .....

बहुत कुछ मन में है। लेकिन शब्दों पर भावनाएं भारी हो रही है। .....  शेष फिर कभी !

7 comments:

Onkar said...

सार्थक लेख

HindIndia said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति …. very nice article …. Thanks for sharing this!! 🙂

महेन्‍द्र वर्मा said...

सामयिक मुद्दे पर बेबाक लेखन ।

kuldeep thakur said...

आपने लिखा....
मैंने पढ़ा....
हम चाहते हैं इसे सभ ही पढ़ें....
इस लिये आप की रचना दिनांक 01/12/2016 को पांच लिंकों का आनंद...
पर लिंक की गयी है...
आप भी इस प्रस्तुति में सादर आमंत्रित है।

कविता रावत said...

संवेदनशील प्रस्तुति ..

manek lakhan said...

बहुत ही सुंदर लेख

तरूण कुमार said...

हमारे अन्दर की हलचल ही हमें कुछ सोचने के लिए विवश करती हैं...............और शब्द तो हमेंशा ही कम पड़ जाते हैं
http://savanxxx.blogspot.in